फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 


दोस्तों, जीवन में कई बार ऐसी घटनाएँ घट जाती है, जहाँ सब-कुछ आशा के विपरीत होते हुए भी आप ग़ुस्से से परेशान या नकारात्मक होने के बजाए सिर्फ़ मुस्कुराकर रह जाते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हाल ही में घटा। जबलपुर से वापस आते समय मैंने जबलपुर मेडिकल कॉलेज में कार्यरत अपनी छोटी बहन से मिलने का निर्णय लिया और अपने टैक्सी ड्राइवर को वहाँ चलने के लिए कहा। 

मेडिकल कॉलेज जाते समय रास्ते में फ़्लाइओवर के निर्माण की वजह से मेरी कार ट्रैफ़िक जाम में फँस गई और कुछ ऐसी स्थिति बनी कि लगभग 20 मिनिट तक गाड़ी 1 इंच भी हिल नहीं पाई। एक ओर जहाँ कुछ लोग जल्दी आगे निकलने के प्रयास में इधर-उधर घुसकर स्थिति को और विकट बना रहे थे वहीं मेरी टैक्सी का ड्राइवर धैर्य के साथ बिना हॉर्न बजाए शांति से खड़ा था। अभी मैं अपने ड्राइवर का हौसला बढ़ाने के लिए उसकी पीठ थपथपाने के विषय में सोच ही रहा था कि ‘धम्म’ की आवाज़ ने मेरी विचार तंद्रा को तोड़ दिया। असल में जगह ना होने के बाद भी दो कारों के बीच में से आगे निकलने की चाह में एक सज्जन अपनी एक्टिवा सहित मेरी कार से टकरा गए थे।

टक्कर लगते ही कार में हुए नुक़सान का आकलन करने के उद्देश्य से ड्राइवर और मैंने एक साथ बाहर की ओर देखा। हमारे ऐसा करते ही एक्टिवा चालक मुझे देखते हुए चिढ़कर ग़ुस्से से बोला, ‘देखने में तो पढ़े लिखे लग रहे हैं लेकिन उसके बाद भी पिछले 20 मिनिट से एक ही जगह खड़े हुए हैं। उनकी बात सुनते ही मुझे ग़ुस्से या चिड़चिड़ाहट की जगह हंसी आ गई और मैं सोचने लगा, ‘पढ़ा लिखा होने की पहचान शांत रहते हुए नियम पालन करना है या फिर हॉर्न बजाकर ट्रैफ़िक नियम तोड़ते हुए कहीं भी घुस जाना?’ ख़ैर, उन सज्जन की बात सुनकर टैक्सी ड्राइवर को ग़ुस्सा आ गया। वह उन्हें कुछ कहने ही वाला था कि मैंने उसे रोककर, शांति बनाए रखने के लिए कहा।

आगे की यात्रा के दौरान मैं सोच रहा था कि आख़िर क्यूँ हम छोटे-मोटे कारणों से अपना आत्मसंयम खो देते हैं? जबकि हमें मालूम होता है कि ग़ुस्से का ग़लत तरीके से प्रयोग अंततः हमारा ही नुक़सान करता है। दोस्तों, सामान्यतः हम ग़ुस्से को एक नकारात्मक भाव के रूप में देखते है। लेकिन मेरा मानना है कि जब आपकी प्रतिक्रिया ग़ुस्से पर आधारित होती है तब ही यह हमारे लिए नकारात्मक होती है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो जब ग़ुस्सा आपको चलाता या कंट्रोल करता है तभी यह आपके लिए नुक़सानदायक होता है। लेकिन इसके विपरीत, अगर आप अपने ग़ुस्से का प्रयोग रचनात्मक रहते हुए सकारात्मक तरीके से करते हैं तो आप अपने मन, विचार, व्यवहार, प्रतिक्रिया आदि पर अपना कंट्रोल बरकरार रखते हुए शांत और खुश रह पाते हैं और अपने जीवन को अपनी इच्छानुसार आगे बढ़ा पाते हैं, उसे बेहतर बना पाते हैं। जी हाँ दोस्तों, ग़ुस्से के दौरान कन्स्ट्रक्टिव क्रिएटिव रहना आपको प्रगति के पथ पर चलने में मदद करता है। इसे मैं आपको हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के जीवन में घटी एक घटना के उदाहरण से समझाने का प्रयत्न करता हूँ।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को प्रथम श्रेणी में यात्रा करने की चाह में वर्ष 1893 में दक्षिण अफ़्रीका के पीटरमैरिट्सबर्ग शहर में ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया था। इसकी मुख्य वजह एक गोरे द्वारा नस्ल भेद के आधार पर ली गई आपत्ति थी। इस घटना के तुरंत बाद महात्मा गांधी ने तैश में आकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि ग़ुस्से को अपने अंदर जीवित रखते हुए नस्लभेद के कारणों को अच्छे से समझा और फिर 21 वर्षों तक दक्षिण अफ़्रीका में वकालत करते हुए नस्लवादी शासन के ख़िलाफ़ सत्याग्रह करा उसके बाद वर्ष 1915 में अपने देश भारत लौटकर देश के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया। 

दोस्तों, ग़ुस्सा आपके लिए सकारात्मक रूप से काम करता है या फिर नकारात्मक रूप से आपका काम तमाम करता है, यह आपके द्वारा उस पर दी गई प्रतिक्रिया से तय होता है। अगर आप चाहते हैं कि ग़ुस्से की वजह से आपका जीवन बर्बाद ना हो तो आज से ही एक निर्णय लीजिएगा जब भी ग़ुस्सा आए तुरंत प्रतिक्रिया देने के स्थान पर शांत रहते हुए अपने निर्णय को कुछ समय के लिए टाल दीजिएगा। 

निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com