फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 


आईए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक बहुत प्यारी सी कहानी से करते हैं। बात कई सौ वर्ष पुरानी है जब बच्चे गुरुकुल में रहकर ज्ञानार्जन किया करते थे। गुरुकुल में गुरु के सानिध्य में बिताया हुआ हर पल उन्हें अच्छा इंसान बनने के साथ-साथ अपना जीवन बेहतर तरीके से जीने के लिए आवश्यक सभी बातें सिखाया करता था। यहाँ तक कि शिक्षा पूर्ण कर घर जाते वक्त जब शिष्य गुरुदक्षिणा देता था तब भी गुरु उसे कोई ना कोई महत्वपूर्ण बात सिखा दिया करते थे।

ऐसी ही एक घटना मैं आपसे साझा करता हूँ। शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात गुरु अपने सभी शिष्यों से गुरुदक्षिणा के रूप में कुछ ना कुछ मांग रहे थे या शिष्य उन्हें कुछ ना कुछ गुरुदक्षिणा दे रहे थे। अंतिम शिष्य का नम्बर आते ही गुरु ने उससे गुरुदक्षिणा माँगते हुए कहा, ‘वत्स, मुझे गुरुदक्षिणा में वह वस्तु लाकर दो जो बिलकुल व्यर्थ हो अर्थात् जो किसी भी काम की ना हो।’ गुरुदक्षिणा के विषय में सुनते ही शिष्य ने गुरु से कहा, ‘गुरु जी यह तो बहुत आसान है, मैं व्यर्थ की वस्तु लेकर अभी हाज़िर होता हूँ।’  और वह उन्हें प्रणाम कर व्यर्थ की वस्तु खोजने के लिए निकल गया।

गुरुकुल से बाहर आते ही उसकी नज़र मिट्टी पर पड़ी उसने सोचा, ‘हाँ, यही तो सबसे व्यर्थ है। मैं इसे ही गुरुजी को अर्पित कर देता हूँ।’ इतने में ही मिट्टी ने कहा, ‘बेटा क्या मैं तुम्हें फ़ालतू नज़र आ रही हूँ? सोचकर देखो, इस धरती का सारा वैभव मुझ ही से है। मेरे गर्भ से ही तुम्हें अन्न, खनिज तत्व इत्यादि प्राप्त होते हैं। मैं ही इस धरती को विविध रूप देती हूँ।’

मिट्टी की उपयोगिता का एहसास होते ही उस बच्चे ने उसे प्रणाम करा और अगली फ़ालतू या व्यर्थ की वस्तु की खोज में निकल पड़ा। कुछ आगे चलने पर उस युवा को कचरे का एक ढेर नज़र आया। उसने सोचा इससे अधिक व्यर्थ और क्या हो सकता है? यह लोगों के घर से निकला हुआ कचरा ही तो है। विचार आते ही वह युवा उस कचरे को उठाने के लिए नीचे झुका, तभी कचरे के उस ढेर में से आवाज़ आई, ‘भाई, जिस गंदगी को तुम व्यर्थ या फ़ालतू समझ रहे हो, जिसके लिए तुम्हारे अंदर घृणा के भाव है, असल में वह कचरे का ढेर ही तुम्हें सर्वश्रेष्ठ खाद उपलब्ध करवाता है। जिसकी सहायता से तुम अच्छी फसल उत्पन्न कर पाते हो, अर्थात् उस फसल को प्राण, ऊर्जा और पोषण मुझसे ही मिलता है। यह अन्न, फल, फूल आदि मेरे ही रूप हैं, मैं ही  इस धरती को उर्वरक बनाकर देती हूँ।’

कचरे के ढेर की बात सुन वह युवा विस्मृत था। वह सोच रहा था मिट्टी, कचरे का ढेर, गंदगी आदि भी अगर इतने मूल्यवान हैं तो भला व्यर्थ या फ़ालतू चीज़ें कौनसी होंगी? उसने इस विषय में काफ़ी सोच-विचार किया, लोगों से सलाह ली लेकिन कोई फ़ायदा ना हुआ। उसने जिस भी वस्तु को फ़ालतू या व्यर्थ का समझा हर वस्तु किसी ना किसी रूप में मूल्यवान निकली। इस बात से उसे आज जीवन का एक और महत्वपूर्ण पाठ सीखने को मिला, ‘सृष्टि द्वारा किसी भी रूप में पैदा किया गया पदार्थ किसी ना किसी रूप में उपयोगी है।’

काफ़ी प्रयास करने के पश्चात हार मान वह अपने गुरु के पास पहुँचा और उन्हें प्रणाम करते हुए बोला, ‘गुरुजी, मैंने आज जीवन का एक और महत्वपूर्ण पाठ सीखा है, इस दुनिया में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। लेकिन साथ ही मैं क्षमा प्रार्थी भी हूँ क्यूँकि मैं अभी तक आपको गुरुदक्षिणा नहीं दे पाया हूँ।’ शिष्य की बात सुन गुरु मुस्कुराए और बोले, ‘वत्स, तुम चाहो तो अपना अहंकार मुझे समर्पित कर अपनी गुरुदक्षिणा चुका सकते हो। अहंकार किसी भी रूप में उपयोगी नहीं है।’ शिष्य ने तुरंत गुरुदक्षिणा के रूप में अहंकार का त्याग किया और सभी बड़ों से आशीर्वाद ले गुरुकुल से प्रस्थान किया।

जी हाँ दोस्तों, इस दुनिया में सृष्टि निर्माता अर्थात् परमपिता परमेश्वर ने जो भी चीज़ें या वस्तु बनाई हैं वह किसी ना किसी रूप में हमारे जीवन को बेहतर बनाने के लिए ही हैं। बस हमारा अहंकार, जो दूसरों को तुच्छ, फ़ालतू या बेकार समझता है, वह ही फ़ालतू या व्यर्थ और त्यागने योग्य है। बिना अहंकार को त्यागे या उसका विसर्जन किए आप अपनी विद्या, ज्ञान और कौशल को सार्थक कर उसे लाभदायक नहीं बना सकते हैं। 

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com