फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


पिछले दो दिन से मैं राजस्थान के जैसलमेर शहर में एक कम्पनी के कर्मचारियों की ट्रेनिंग में व्यस्त था। इसी दौरान कम्पनी का एक कर्मचारी अपनी व्यक्तिगत समस्या के समाधान के लिए मुझसे मिला। असल में उस कर्मचारी का 15 वर्षीय बेटा वैसे पढ़ाई में तो बहुत अच्छा था लेकिन उसकी संगत बहुत ग़लत थी। उसके पिता इसी वजह से बड़े चिंतित थे। मैंने उनसे कहा कि आप उसे समझाते क्यों नहीं?, तो वे बोले, ‘सर समझा-समझाकर थक गया हूँ, जब भी कुछ बोलो तो कहता है, ‘जब मैं अच्छे से पढ़ाई कर रहा हूँ, साथ ही आप जो भी कहते हैं वह सब अच्छे से कर रहा हूँ, मुझमें कोई ग़लत आदत भी नहीं है, तो फिर आपको मेरे दोस्तों से क्या समस्या है?’ मैंने उन सज्जन से अपने बेटे को मुझसे मिलवाने के लिए कहा और उसे एक बोध कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी-

इंसानियत और धर्म का पाठ लोगों को पढ़ाने, सदाचार के महत्व को समझाने के उद्देश्य से एक साधु अपने शिष्यों के साथ पूरे देश में भ्रमण किया करते थे। एक बार मरुस्थल से गुजरते वक्त वे रास्ता भटक गए। सही रास्ता खोजने के प्रयास में भटकते-भटकते वे काफ़ी थक गए और उनके पास भोजन व पानी भी खत्म हो गया।

मरुस्थल में पानी की खोज करते वक्त अचानक ही शिष्य को कुछ दूरी पर पेड़ नज़र आए। उसने अंदाज़ा लगाया कि ज़रूर यहाँ आसपास ही पानी का कोई ना कोई साधन उपलब्ध होगा अन्यथा रेगिस्तान में ऐसा घना पेड़ होना असम्भव ही है। उसने गुरु को परेशान अवस्था में देख कहा, ‘गुरुजी, आप यहाँ, इस पेड़ की छाँव में विश्राम कीजिए, मैं आपके पीने के लिए पानी का प्रबंध करता हूँ।’ इतना कहकर शिष्य ने गुरु जी को पेड़ के नीचे बैठाया और पानी की खोज में निकल पड़ा। 

काफ़ी देर तक भटकते रहने के बाद, अचानक ही शिष्य को एक झरना नज़र आया उसने तुरंत अपने कमंडल में पानी भरा और दौड़ते हुए गुरु के पास पहुँचा और उन्हें पानी पिलवाया। गुरु ने पानी का एक घूँट पीते ही उसे थूक दिया और बोले, ‘बेटा, यह पानी तो एकदम कड़वा है।’ शिष्य को गुरु जी के शब्द सुनकर बहुत ग्लानि हुई उसे पश्चाताप हो रहा था कि वह पानी को बिना चखे क्यूँ ले आया? उसने तुरंत गुरुजी से क्षमा माँगी और वापस से साफ़ पानी की खोज में निकल पड़ा।

पहले झरने से कुछ दूरी पर उसे एक और पानी का छोटा सा कुंड नज़र आया। उसने तुरंत अपने कमंडल को उससे भरा और एक घूँट पी कर देखा, पानी इस बार भी बहुत कड़वा था। चूँकि शिष्य ने गुरु जी को पानी उपलब्ध कराने का ठान रखा था इसलिए वह रुका नहीं और आगे बढ़ गया और तब तक ढूँढता रहा जब तक उसे पानी का एक और स्त्रोत, कुआँ नहीं मिल गया। उसने तुरंत कमंडल से पानी निकाला और एक घूँट पीकर देखा। लेकिन यह क्या! पानी इस बार भी बहुत कड़वा था। वह घबरा गया उसे लगा इस मरुस्थल में पानी के जितने भी साधन है, वह सभी ख़राब है और शायद ज़हरीले भी। वह घबरा गया, उसे लगा अब अंत नज़दीक ही है क्यूंकि वह ज़हरीला पानी पी चुका था। हार मानकर शिष्य भागते-भागते वापस अपने गुरु के पास पहुँचा और उन्हें पूरा क़िस्सा सुनाते हुए माफ़ी माँगने लगा। गुरुजी ने पहले तो उसे शांत करा फिर उससे सिलसिलेवार पूरी घटना सुनाने को कहा। शिष्य ने पूरी की पूरी घटना गुरुजी के सामने एक बार फिर दोहरा दी।

घटना सुनते ही गुरुजी मुस्कुरा दिए और उससे बोले, ‘वत्स, मुझे तुम उस झरने के पास लेकर चलो।’ शिष्य ने तुरंत गुरुजी की आज्ञा का पालन करा और उन्हें लेकर झरने पर पहुँच गया। गुरुजी ने अपने चुल्लू में झरने का पानी लिया और उसे पी लिया और शिष्य की ओर देखते हुए बोले, ‘वत्स, इस झरने का पानी तो एकदम मीठा और पीने योग्य है। तुम्हें वह कड़वा इसलिए लगा क्यूँकि तुम्हारा कमंडल गंदा था।’ 

कहानी पूरी होते ही मैंने उस बच्चे से कहा, ‘जिस तरह ख़राब कमंडल के सम्पर्क में आते ही शुद्ध और मीठा जल, कड़वा हो गया था, ठीक उसी प्रकार ख़राब संगत हमारे मन, हमारी सोच को तुरंत प्रभावित करती है। लेकिन कई बार हमें इसका आभास तुरंत नहीं होता, जबकि हमारे समीप रहने वाले लोग हमारे ग़लत व्यवहार को तुरंत पहचान जाते हैं और हमें ग़लत संगत से दूर रहने के लिए कहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कमंडल से पीने पर गुरुजी को झरने का पानी कड़वा लगा और कमंडल को छोड़ते ही चुल्लू से पीने पर मीठा। 

मुझे नहीं पता वह बच्चा मेरी बात समझ पाया या नहीं लेकिन दोस्तों यही हक़ीक़त है। इस कहानी को आप एक और नज़रिए से समझ सकते हैं। अगर हमारा मन, हमारी सोच गंदी होगी तो हमें अपने चारों और गंदगी ही गंदगी अर्थात् परेशानी और कमियाँ ही नज़र आएँगी और अगर आप अपने मन, अपनी सोच को साफ़ कर लेंगे तो चारों और अच्छाई और सम्भावनाएँ नज़र आएगी।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com