फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


उज्जैन ज़िले के क़स्बे चंद्रावतिगंज के एक विद्यालय द्वारा आयोजित कैरियर काउन्सलिंग सेमिनार में मुझे कक्षा 10वीं से 12वीं के बच्चों से चर्चा करने का मौक़ा मिला। चर्चा के शुरुआती दौर में तो मैं स्वयं दुविधा में था कि बच्चों को क्या बताऊँ क्यूंकि मेरी आशा के विपरीत सभी बच्चे एकदम जागरूक अर्थात् शहरी बच्चों के समान ही वर्तमान में उपलब्ध सभी कैरियर ऑप्शन के बारे में जानते थे और उन्होंने अपनी पसंद के हिसाब से अपने-अपने कैरियर चुन रखे थे। 

बात आगे बढ़ाने पर मुझे एहसास हुआ कि ज़्यादातर बच्चों ने विषय और कैरियर का चुनाव अपनी पसंद, योग्यता, क्षमता के आधार पर ना करते हुए, उस क्षेत्र में कितनी ग्रोथ या पैसा है के आधार पर करा था। हालाँकि अपना भविष्य बनाने का यह भी एक तरीक़ा है लेकिन इसमें अपने फ़ोकस को लम्बे समय तक बरकरार रख पाना बच्चों के लिए आसान नहीं होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह नापसंद विषयों और कार्यों में विशेषज्ञता हासिल करने में लगने वाला समय होता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो आपको जो पसंद है वह छोड़कर उन कार्यों में अधिक समय लगाना पढ़ता है जो नापसंद है और यही बात बच्चों को लम्बे समय तक अपनी योजना पर चलने, मेहनत करने से रोक देती है। ऐसा ही कुछ उन बच्चों के साथ हो रहा था।

उदाहरण के लिए एक बच्चे ने जीव विज्ञान अर्थात् बायलॉजी सिर्फ़ इसलिए चुना था क्यूँकि उसका मानना था कि अगर मैं डॉक्टर बन गया तो जीवन में बहुत जल्दी सेट हो जाऊँगा। लेकिन अब उसके समक्ष एक नई चुनौती है, योग्यता व क्षमता होने के बाद भी वह अपनी पढ़ाई पर फ़ोकस नहीं कर पा रहा है। मैंने तुरंत बच्चों को एक कहानी सुनाने का निर्णय लिया, जो इस प्रकार थी- 

एक दिन रामगढ़ के राजा संध्या के समय में विचारों में खोए हुए अपनी छत पर टहल रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो किसी गम्भीर विषय पर मंथन कर रहे हों। घूमते-घूमते अचानक ही उनकी दृष्टि महल के पास बाज़ार में घूमते हुए एक महात्मा पर पड़ी, जो आनंद से भरे हुए, अपनी ही धुन में खोए चले जा रहे थे, मानो वहाँ उनके आस-पास कोई और है ही नहीं। उन्हें उस भरे हुए बाज़ार में किसी से मतलब ही नहीं था। वे तो बस अपनी धुन में मदमस्त हाथी समान थे। 

राजा महात्मा को देख अचंभित थे वे सोचने लगे कोई व्यक्ति इतना आनंदित, अपनी मस्ती में मस्त, बेफिक्र कैसे रह सकता है? राजा के मन में इस प्रश्न का उत्तर जानने की तीव्र इच्छा पैदा हो गई। उन्होंने अपने सैनिकों को बुलाया और 2 मिनिट के अंदर महात्मा को अपने सामने पेश करने का आदेश दे दिया। सैनिकों को समझ ही नहीं आया कि दो मिनिट में महात्मा को नीचे से महल की छत  पर कैसे लाएँ? 

छत पर मौजूद सैनिकों ने महल के द्वार पर मौजूद सैनिकों को राजा का आदेश सुनाया और महात्मा को ऊपर लाने का कहा लेकिन इसमें भी समय लगता। सैनिकों ने अपने दिमाग़ से योजना बनाई और एक रस्सा नीचे डाल कर उससे महात्मा को ऊपर खींच लिया और उन्हें महाराज के सामने लेकर पहुँच गए। 

इतना सब होने के बाद भी महात्मा जी तो अपनी धुन में अभी भी मस्त थे। महाराज ने आते ही सबसे पहले महात्मा के चरण छुए और सैनिकों द्वारा किए गए गलत व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी। महात्मा ने उन्हें माफ़ करते हुए आशीर्वाद दिया और बोले, ‘महाराज! निश्चित तौर पर आप किसी गहन चिंता में डूबे हुए हैं, किसी गूढ़ प्रश्न का जवाब खोज रहे हैं। बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।’

महाराज ने बिना एक भी पल गँवाए महात्मा जी से कहा, ‘महात्मा जी! इस व्याकुलता के पीछे सिर्फ़ एक ही सवाल है, किस तरह बिना समय गँवाए तुरंत अपने लक्ष्यों को पाया जा सकता है।’ प्रश्न सुनते ही महात्मा जी मुस्कुराए और बोले, महाराज इस सवाल का जवाब तो आपके स्वयं के पास है, आप बस उस पर गौर नहीं कर रहे हैं।’ 

महाराज महात्मा की बात में छुपे गूढ़ अर्थ को समझ नहीं पाए और विस्तार से बताने का कहा। महात्मा जी राजा को लगभग गिड़गिड़ाता देख पसीज गए और बोले, ‘महाराज जब तुम्हारे मन में मुझसे मिलने का विचार इतना प्रबल रूप से आया तो सोचो हमें मिलने में कितनी देर लगी? 2 मिनिट भी नहीं। बस अगर तुम अपने लक्ष्य को पाने के लिए भी इतने व्याकुल हो जाओगे तो तुम उसे पा लोगे।’

कहानी पूरी होते ही मैंने उन बच्चों की ओर देखा और कहा शायद अब आपको अपने प्रश्न का जवाब मिल गया होगा। जिस दिन तुम अपने लक्ष्य को पाने के लिए इतने व्याकुल हो जाओगे कि तुम्हें उसके सिवा कुछ ओर दिखना ही बंद हो जाएगा, उस दिन लक्ष्य खुद चलकर तुम्हारी ओर आने लगेगा।

जी हाँ दोस्तों, अगर आपका बच्चा बार-बार लक्ष्य बदल रहा है या उसे पाने के लिए फोकस नहीं कर पा रहा है तो निश्चित तौर पर उसके अंदर अभी लक्ष्य को पाने की तीव्र इच्छा नहीं है। ऐसी स्थिति में आपको उससे चर्चा करके उसकी पसंद, नापसंद, इच्छाओं आदि को पहचानकर, उससे सम्बंधित बातें साझा कर, उसके अंदर तीव्र इच्छा पैदा करना होगी। वैसे दोस्तों, अक्सर मैं इसे इस तरह भी कहता हूँ, ‘लक्ष्य को इतनी चाहत से चाहो कि वह भी तुम्हें पाने के लिए बेचैन हो जाए।’ 

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर   
dreamsachieverspune@gmail.com