फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 


आईए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक बहुत ही प्यारी कहानी से करते हैं। बात कई साल पुरानी है, गाँव के सबसे बड़े सेठ अमीरचंद ने अपने पोते के जन्मदिन के उपलक्ष्य में कीर्तन का आयोजन किया था। कीर्तन के पश्चात सेठ ने सभी ब्राह्मणों को भोजन कराया और विदा किया।

सेठ अमीररचंद द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में कीर्तन करने के लिए पंडित जी अपने दोनों पुत्रों के साथ आए थे। कीर्तन व भोजन के पश्चात पंडित जी अपने दोनों पुत्रों को लेकर घर जाने के लिए निकले। रास्ते में पंडित जी ने देखा उनका छोटा बेटा उदास, शांत और बुझा-बुझा लग रहा है जबकि बड़ा बेटा खुश, मस्त और ऊर्जा से भरपूर है। दोनों बेटों के व्यवहार में इतना अंतर देख पंडित जी हैरान थे। शुरू में तो उन्हें लगा, हो ना हो जो भाई उदास या गुमसुम सा है उसके साथ कुछ ना कुछ ग़लत हुआ है। पंडित जी ने बेटे से इस विषय पर चर्चा करने के स्थान पर घर पहुँचने तक चुप रहने का निर्णय लिया।

घर पहुँचने पर पंडित जी ने अपने छोटे बेटे से कहा, ‘बेटा! तुम इतने दुखी व परेशान क्यूँ लग रहे हो? पूरे रास्ते तुमने हम दोनों में से किसी से भी बात नहीं करी? यजमान के यहाँ कोई परेशानी तो नहीं हुई तुम्हें? उसने तुम्हारे मान-सम्मान में कोई कमी तो नहीं रखी या फिर कोई और परेशानी हो तो बताओ। पिता की बात सुन छोटा बेटा धीमी आवाज़ में बोला, ‘पिताजी, बाक़ी सब तो अच्छा था पर मुझे लग रहा था कि शहर का सबसे बड़ा सेठ है इसलिए दक्षिणा में कम से कम सौ रुपए तो देगा पर उसने मात्र पचास रुपए ही दिए।’

पिता ने छोटे बेटे को कुछ और कहने के स्थान पर बड़े बेटे की ओर देखा और बोले, ‘बेटा! तुम तो पूरे रास्ते बड़े खुश और मस्त लग रहे थे। चलते वक्त भी तुम भजन गुनगुनाते हुए चल रहे थे, इसकी क्या वजह है?’ बड़ा बेटा बोला, ‘पिताजी जब आपने मुझे बताया कि हम नगर सेठ के यहाँ भजन करने जा रहे हैं तभी मेरे मन में विचार आया था कि वह तो बहुत ही बड़ा कंजूस है। भजन पूजन के बाद दस रुपए भी दक्षिणा में दे दे तो भी बहुत बड़ी बात है। पर विदाई के वक्त जैसे ही उसने मुझे पचास का नोट दिया मेरा मन एक दम से खिल गया। इसीलिए मैं आपको खुश नज़र आ रहा था।’

दोनों की बात पूरी होते ही पंडित जी छोटे बेटे से बोले, ‘बेटा, तुम्हारी अपेक्षा की सेठ द्वारा उपेक्षा करना ही तुम्हारे दुःख का कारण है। जबकि तुम्हारे भाई को अपेक्षा से ज़्यादा मिला इसलिए वह खुश है। याद रखो, जब भी तुम अपेक्षा के साथ कार्य करोगे तो पेंडुलम के भाँति सुख और दुःख के बीच में झूलते रहोगे।’ 

सही भी तो है दोस्तों, ज़्यादातर घटनाएँ हमारे जीवन में एक जैसी घटती हैं, पर हम सभी उन घटनाओं पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ, सुख और दुःख, अच्छा या बुरा, पसंद या नापसंद हमारी प्रतिक्रियाओं के नतीजे हैं। इसे थोड़ा सा और गहराई से देखा जाए तो इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ सुख और दुःख हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करते हैं।

इसलिए दोस्तों, अपेक्षाओं का प्रबंधन और स्वीकारोक्ति का भाव रखकर हम खुश और सुखी रह सकते हैं क्यूँकि अगर अपेक्षा या कामना ही ना होगी तो जो भी मिलेगा उसमें हमें आनंद ही आनंद मिलेगा। इसलिए आज से अपेक्षाओं को शून्य रखते हुए, उच्च संस्कारों और चारित्रिक स्तर के साथ अपनी वाणी, व्यवहार और कर्म से अपना सर्वश्रेष्ठ दें और आनंदित जीवन जिएँ।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com