फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 

दोस्तों, अक्सर कहा जाता है, ‘सकारात्मक और आशावादी रहना आपके जीवन को बेहतर बनाता है।’ बात सही भी है, लेकिन जब आप हर चीज़ को सकारात्मक नज़रिए से देखते हैं, तो आप अक्सर यथार्थ से दूर हो जाते हैं। अर्थात् जो सकारात्मकता आपके जीवन को बेहतर बनाने के लिए थी वही सकारात्मकता अब आपको दुविधा, परेशानी में डाल, मुश्किल परिस्थितियों में उलझा देती है। 

चलिए इस स्थिति को हम एक उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। मान लीजिए आप अपने सर्कल अर्थात् जिन लोगों के बीच आप रहते हैं, के प्रति बहुत अधिक सकारात्मक हैं और इसीलिए आप बहुत अधिक आशान्वित भी हैं। आशान्वित हैं, इसलिए आप उनसे अपेक्षा रखना शुरू कर देते हैं। चूँकि आपकी यह आशा, अपेक्षा यथार्थवादी दृष्टिकोण के मुक़ाबले सकारात्मकता पर आधारित है, इसलिए इसके पूरे ना होने पर बहुत अधिक सम्भावना है कि अंत में आपको निराशा और असंतोष हाथ लगे। 

निराशा और असंतोष का यही भाव अब आपके अंदर नकारात्मकता का भाव पैदा करेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, आपके लिए सकारात्मक और आशावादी रहना ही नकारात्मकता की मुख्य वजह बन जाता है। अब क्या किया जाए? सकारात्मक रहना बंद कर दें। यह तो पूर्णतः ग़लत होगा क्यूँकि आशावान और सकारात्मक रहना ही हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए मोटिवेशन अर्थात् ऊर्जा देता है। इसीलिए अपेक्षा अपूर्ण रहने पर भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए आपको सकारात्मक रहते हुए रचनात्मक तरीके से हल खोजना होगा। आईए, इसे हम एक कहानी से समझने का प्रयास करते हैं- 

बहुत साल पहले की बात है स्वप्ननगरी के राजा ने अपने राज्य की जनता से मिलने, उनका हाल-चाल जानने और अपने नगर के एकमात्र मंदिर के दर्शन करने की योजना बनाई। जैसे ही प्रजा को इस विषय में पता चला सभी उत्साहित हो गए और अपने-अपने तरीक़े से राजा के स्वागत की तैयारियाँ करने लगे, अपने राज्य को सजाने लगे।

सभी को तैयारियाँ करता देख मंदिर का पुजारी सोचने लगा, ‘राजा को पूरा राज्य तो साफ़-सुथरा, चमकता हुआ नज़र आएगा। ऐसे में अगर वह मंदिर को गंदा देखेगा तो क्या सोचेगा? सभी लोगों की तरह मुझे भी मंदिर का रंग-रोगन करवाकर इसे एकदम चकाचक करवा लेना चाहिए।’ तभी उसे याद आया उसके पास तो खाना-खाने के पैसों का भी टोटा रहता है, फिर वह रंग रोगन का खर्च कैसे उठाएगा? कुछ देर विचार करने पर पंडित जी को एक हल सूझा, ‘राजा इतने वर्षों बाद मंदिर आएगा तो निश्चित तौर पर मंदिर में कुछ ना कुछ अच्छी चीज़ें भेंट स्वरूप चढ़ाएगा। जैसे सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात या फिर बहुत सारा पैसा। तो क्यूँ ना अभी किसी से उधार लेकर काम करवा लिया जाए और बाद में राजा के दान से इस उधार को चुकता कर दिया जाए।’ पंडित जी ने तुरंत इस विचार पर अमल करा और मंदिर के सभी कार्य पूर्ण करवा लिए। 

तय दिन राजा मंदिर दर्शन करने के लिए पहुंचे और मंदिर में पूजा पाठ के उपरांत एक सिक्का चढ़ाया और वापस लौट गए। पंडित जी चढ़ावे की रक़म देख हैरान-परेशान थे। वह तो सोच रहे थे कि राजा के दान से उनका जीवन बेहतर बन जाएगा। लेकिन चढ़ावे के सिक्के से तो उधार उतारना भी संभव नहीं था। काफ़ी देर विचार करने के बाद पंडित जी ने राजा के चढ़ाए सिक्के को अपनी मुट्ठी में बंद करा और एक ढोल वाले को साथ लेकर नगर में ढिंढोरा पीटने लगे, ‘अधिक से अधिक पैसे में बोली लगाकर राजा द्वारा मंदिर में चढ़ाई वस्तु को प्राप्त करें।’ कुछ ही देर में आग की तरह यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। हर कोई राजा की चढ़ाई वस्तु को ख़रीदना चाहता था लेकिन ख़रीदने से पहले उसे देखना भी चाहता था, जिससे वह उसका उचित दाम लगा सके।

लेकिन पंडित जी तो चतुर थे, वे यह सब अपनी योजना के अनुसार कर रहे थे। इसीलिए वे किसी भी हाल में अपनी मुट्ठी खोलने के लिए राज़ी नहीं थे और ना ही वे किसी को दान में मिली वस्तु के बारे में बता रहे थे। लोगों की बढ़ती उत्सुक्ता के बीच जल्द ही बोली 25000 सोने के सिक्के तक पहुँच गई। जैसे ही यह बात राजा को पता पड़ी वे घबरा गए। उन्हें लगा अगर पूरी प्रजा को पता चला कि मैंने मंदिर में मात्र एक सिक्का चढ़ाया था तो लोग मेरा मज़ाक़ उड़ाएँगे, मेरी बेइज़्ज़ती करेंगे। उन्होंने उसी वक्त अपने मंत्री को भेजा और पंडित को 50000 सोने के सिक्के देकर अपना चढ़ाया हुआ सिक्का वापस ले लिया। 

दोस्तों, आशा करता हूँ अब आप सकारात्मक रहते हुए रचनात्मक तरीके से अपेक्षाओं में मिली असफलताओं का प्रबंधन करना सीख गए होंगे। याद रखिएगा, अगर कोई आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है तो, रीऐक्ट ना करें बल्कि सकारात्मक रहते हुए रचनात्मक तरीके से री-ऐक्ट करें।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com