फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
 

जागरूक रहते हुए जीवन जीना जहाँ आपके जीवन को सुकून भरा बनाता है, वहीं धारणाओं पर आधारित जीवनशैली आपका सामना अनावश्यक विपरीत परिस्थितियों, दुविधाओं और परेशानियों से करवाती है। अपनी बात को विस्तृत रूप से समझाने के लिए मैं आपको दो दिन पूर्व मेरे साथ घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।

अवंतिका एक्सप्रेस से मुंबई से इंदौर आने के लिए मैं तय समय पर बोरिवली स्टेशन से ए-2 कोच में चढ़ा और अपनी सीट पर पहुँचकर सामान को व्यवस्थित जमाने लगा। चूँकि मुझे ट्रेन में अपर सीट मिली थी इसलिए मैंने अपने सामान को पहले लोअर सीट, जिसे शायद पूर्व में किसी ने खाना-खाने के लिए इस्तेमाल किया था, पर रखा और ऊपर वाली सीट को व्यवस्थित करने लगा। इसी दौरान एक वृद्ध दम्पत्ति, जिनकी उसी ब्लॉक में दोनों लोअर सीट थी, वहाँ आए और अपना सामान व्यवस्थित रूप से सीट के नीचे जमाने लगे।

सामान सीट के नीचे रखते ही वृद्ध महिला ने मेरी ओर देखा और खाने की वजह से गंदी हुई सीट की ओर इशारा करते हुए मुझसे बोली, ‘व्हाट इस दिस?’ अर्थात् ‘यह क्या है?’ उनका बिना वजह मेरी ओर इस तरह उँगली उठाकर तल्ख़ लहजे में बात करना मुझे उचित नहीं लगा। मैंने उन्हीं की टोन में मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘मैडम, यह आलू के चिप्स का टुकड़ा है।’ उन्हें शायद मेरा मज़ाक़िया लहजा पसंद नहीं आया और वे थोड़ा चिढ़ते हुए मुझसे बोली, ‘वह तो मुझे पता है। पर यह यहाँ क्यूँ पड़ा है?’ मैंने उसी मुस्कुराहट के साथ बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘क्यूँकि इसे कोई यहाँ छोड़ गया है।’ इतना कहते हुए मैंने लोअर सीट पर रखा अपना पूरा सामान उठाया और उसे अपनी अपर सीट पर रख लिया।

असल में उन महिला ने मेरा सामान वहाँ रखा देखकर अंदाज़ा लगाया था कि मैंने वहाँ बैठकर खाना खाया था और सीट को गंदा ही छोड़कर अपना सामान जमाने में लग गया था। ख़ैर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। सबसे पहले उन्होंने कोच में लगे पर्दे से पूरी सीट को साफ़ किया, उस पर चद्दर बिछाई और तकिया लगाकर आराम से बैठ गई और किसी से फ़ोन पर बात करने लगी। फ़ोन पर हो रही बातचीत के दौरान ही उन्होंने सामने वाले से कहा, ‘आजकल लोग पैसे वाले तो बन गए हैं लेकिन शिष्टाचार भूल गए हैं।’

उनकी बात सुनते ही मेरी आँखों के सामने पूरी घटना घूम गई और मैं सोचने लगा कि असल में अमर्यादित व्यवहार किसका था। मेरी नज़र में तो निश्चित तौर पर उस महिला का क्यूँकि उन्होंने अपनी धारणाओं के आधार पर किसी के बारे में राय बनाई, उसके चरित्र या कार्य करने के तरीके पर उँगली उठाई, पर्दे से अपनी सीट को साफ़ करा, दूसरे की सीट से अपना तकिया और चद्दर बदला, आदि। ख़ैर अपने मूड को अच्छा बनाए रखने के लिए मैंने सभी बातों को नज़रंदाज़ करने का निर्णय लिया और आराम से अपनी अपर सीट पर आराम करने लगा। लगभग 1 घंटे बाद जब सभी लोग सोने की तैयारियों में लग गए तब उन महिला को एहसास हुआ कि सीट को खाने से ख़राब करने वाला मैं नहीं, बल्कि हमारे उस कंपार्टमेंट में मौजूद चौथा यात्री था।

इसीलिए दोस्तों मैं अक्सर कहता हूँ, शारीरिक चोट, समय के साथ ठीक हो जाती है लेकिन आपके व्यवहार अथवा कहे गए शब्दों से किसी के दिल पर लगी चोट का असर जीवन भर रहता है। वैसे इसके प्रभाव से चोट पहुँचाने वाला व्यक्ति भी बच नहीं पाता है। जीवन के किसी ना किसी पड़ाव पर उसे अपने व्यवहार पर पश्चाताप ज़रूर होता है। ऐसा ही कुछ मेरी ट्रेन यात्रा के अंतिम पड़ाव उज्जैन पहुँचने पर उस दंपत्ति के साथ भी हुआ। असल में वे पहली बार उज्जैन यात्रा पर आए थे और उनके मन में उज्जैन शहर से सम्बंधित कई प्रश्न थे जैसे जिस होटल में उन्हें ठहरना था वहाँ तक कैसे जाएँ? मंदिर जाने का उचित समय क्या रहेगा आदि। लेकिन यह पता होने के बाद भी मैं उज्जैन का ही मूल निवासी हूँ, वे मुझसे इस बारे में पूछने से कतरा रहे थे। मैं तुरंत उनकी दुविधा भाँप गया और उन्हें उचित जानकारी उपलब्ध करवाकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया। इसीलिए साथियों मैंने शुरुआत में कहा था, ‘किसी भी बात पर अपनी धारणाओं के आधार पर प्रतिक्रिया देना हमेशा नुक़सान का सौदा रहता है।’
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com