फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 

दोस्तों, कल हमने ‘सही शिक्षा से बनाएँ बच्चों को सफल ’ विषय के बारे में चर्चा करते हुए उम्र आधारित शिक्षा के महत्व को समझा था। आईए, आज हम शून्य से सात वर्ष तक के बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा के विषय में चर्चा करते हैं।

शून्य से 7 वर्ष की उम्र के बच्चों की आवश्यकता को समझने के लिए हमें उनके बड़े होने के तरीके को समझना होगा। याद करके देखिए, एक छोटे बच्चे का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने या उसके साथ खेलने के लिए आप क्या करते हैं? निश्चित तौर पर चुटकी या ताली के द्वारा आवाज़ करते हैं और उसके साथ खेलते हैं। लेकिन यहाँ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आपके जाने के बाद बच्चा क्या करता है? वह आपकी नक़ल कर चुटकी या ताली बजाने का प्रयास करता है। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ, वह बच्चा नई चीजों को स्वाभाविक तौर पर सीखने के लिए लालायित है, उसकी ऑब्ज़र्वेशन स्किल बहुत अच्छी है। 

यही बच्चा जब थोड़ा बड़ा होकर घुटने चलता है तो पलंग, टेबल या स्टोर रूम जैसी जगह जहां आप उसे पहले नहीं ले गए थे, घुसने का प्रयास करता है। थोड़ा सा सोचकर देखिए बच्चे की यह हरकत उसकी किस विशेषता की ओर इशारा करती है? चलिए एक हिंट और देता हूँ, जब यह बच्चा थोड़ा और बड़ा होकर चलना सीख जाता है तो सबसे पहले घर के बाहर ही क्यूँ भागता है? या फिर गैलेरी पर चढ़कर बिलकुल नीचे ही क्यूँ झांकता है? 

असल में दोस्तों, उसकी यह सभी हरकतें उसकी जिज्ञासु प्रवृति को दर्शाती है। जी हाँ दोस्तों, जिस-जिस स्थान को उस बच्चे ने एक्सप्लोर नहीं किया था उसे हर उस जगह को देखना है, फ़ील करना है। लेकिन निडर रहते हुए एक्सप्लोर करने या सीखने की उसकी क्षमता पर हम पलंग के नीचे घुसने पर ‘बाऊ’ कहकर, तो अंधेरे कमरे या स्टोर रूम में जाने पर ‘भूत’ कहकर, तो बाहर भागने पर ‘झोली वाला बाबा’ कहकर डराते हैं या उसके बाल मन में पहली बार नकारात्मकता का बीज बोते हैं।

बात यहीं ख़त्म नहीं होती जब यह बच्चा थोड़ा और बड़ा होता है और अपना सामान यहाँ-वहाँ बिखेरकर रखता है या पानी लेकर पीने जैसे कार्य पर भी, आप पर निर्भर रहता है, तो आप उसे ‘बड़े हो गए हो!’ कहकर समझाने का प्रयास करते हैं। लेकिन पंद्रह मिनिट बाद जब वह चार्जर को प्लग में लगाने का प्रयास करता है तो आप उसे ‘अभी तुम छोटे हो’ कहकर सम्बोधित करते हैं या समझाने का प्रयास करते हैं। ऐसा एकाध बार हो तो ठीक है, लेकिन अक्सर हमारा बच्चे के साथ होने वाला संवाद अस्पष्ट या उलझाने वाला होता है, जो उसकी सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया पर नकारात्मक रूप से प्रभाव डालता है। 

इन सभी प्रक्रियाओं के बीच यह बच्चा शारीरिक रूप से भी बड़ा हो रहा होता है। अर्थात् इस उम्र में हमें शारीरिक रूप से मज़बूत बनाने वाली शिक्षा भी देना होगी अर्थात् हमें उस बच्चे की मोटर स्किल, सेंसेस जैसे सुनना, बोलना, देखना, टच और टेस्ट करना, पर भी कार्य करना होगा। साथ ही हमें कॉर्डिनेशन अर्थात् जो आँख ने देखा, उसे हाथ ने छुआ या पकड़ा जैसी शारीरिक गतिविधियों को भी बेहतर बनाना होगा।  
  
दोस्तों, अगर उपरोक्त घटनाओं के आधार पर देखा जाए तो हमें बच्चों में निम्न महत्वपूर्ण गुण मिलेंगे-
1) उनमें स्वाभाविक रूप से सीखने की क्षमता।
2) वे जिज्ञासु और प्रयोग धर्मी होते हैं। 
3) वे निडरता के साथ सीखते हैं।
4) वे हर गतिविधि या चीज को केवल एक खेल या मजे वाला कार्य मानते हैं।

मुझे लगता है बच्चों में यह गुण निम्न दो कारणों से होते हैं।
1) वे दुनिया को अपनी नज़र से जानने का प्रयास या कोशिश कर रहे हैं।
2) वे न केवल शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी बड़े हो रहे हैं।

दोस्तों, उपरोक्त आधार पर मेरा मानना है कि बेहतरीन शिक्षा देने के लिए हमें उन्हें प्रयोगशाला मानने के स्थान पर समय की कसौटी पर परखा हुआ, उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक तरीक़े से बनाया हुआ वातावरण देना होगा। जैसे पलंग के नीचे घुसने पर डराने के स्थान पर वहाँ से उन चीजों या गंदगी को हटाना जो उसे नुक़सान पहुँचा सकती है या फिर फ़्रीडम के साथ एक्सप्लोर करने के लिए सुरक्षित एक्सपोजर देना। कुल मिलाकर कहा जाए दोस्तों, तो शून्य से सात वर्ष के बच्चों को हमें ऐसा वातावरण देना होगा, जहाँ उनकी जिज्ञासा, परखने की क्षमता, निडरता, प्रयोगधर्मिता, स्वाभाविक रूप से सीखने की क्षमता का विकास हो। जिससे वे इस दुनिया को अपने नज़रिए से जान और पहचान सकें, नकारात्मकता से दूर रहते हुए स्वाभाविक रूप से सीखकर जीवन में आगे बढ़ सकें।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com