फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
 

हर निराशा, एक आशीर्वाद के साथ आपके पास आती है। सही पढ़ा आपने, मेरा मानना है, हर निराशा का अंतिम बिंदु हमारी उपलब्धियों की शुरुआत होता है। शायद इतना सा कहकर अपनी बात समझाना सम्भव नहीं है। आइए मैं इसे आपको एक प्रसिद्ध सच्ची घटना याद दिलाकर समझाता हूँ।

तुलसीदासजी अपनी पत्नी रत्नावली से बहुत प्रेम करते थे। एक बार रत्नावली के मायके जाने पर तुलसीदास जी को उनकी बहुत याद आई। उन्होंने कोई और उपाय ना देख रात को ही पत्नी के गाँव जाने का निर्णय लिया, हालाँकि उस दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी और मौसम भी बहुत ख़राब था, साथ ही पत्नी रत्नावली नदी के दूसरे किनारे पर रहती थी।

पूर्णतः विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी तुलसीदास जी घनघोर बारिश भरी रात में पत्नी से मिलने के लिए निकल पड़े। अत्यधिक बारिश की वजह से तुलसीदास जी को नदी किनारे कोई नाव नहीं मिली, वे दुविधा में थे की अब क्या किया जाए? तभी तुलसी दास जी की नज़र नदी में तैरती एक लाश पर पड़ी, उन्होंने उसी की सहायता से बड़ी मुश्किल से नदी पार करी और पत्नी के घर पहुँच गए और जोर-जोर से दरवाजा खटखटाने लगे। तेज़ बारिश और बादलों के गरजने की आवाज़ के बीच घर में कोई दरवाज़े की आवाज़ नहीं सुन पाया और किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला।
तुलसीदास जी परेशान हो गए और घर की दूसरी मंज़िल, जहाँ उनकी पत्नी सोती थी, पर पहुँचने के लिए घर के चारों ओर घूम रास्ता तलाशने लगे। घर के पिछले हिस्से में तुलसीदास जी को एक मोटी सी रस्सी लटकी नज़र आयी, उन्होंने उसे पकड़ा और किसी तरह ऊपर चढ़ गए और सीधे अपनी पत्नी के कमरे में पहुँच गए। इतनी रात को अचानक से तुलसीदासजी को अपने सामने देख रत्नावली हड़बड़ा गई और उनसे पूछने लगी, ‘इतनी तेज़ बारिश में आधी रात को आप यहाँ कैसे आए और ऊपर कैसे चढ़े?’, तुलसीदासजी बड़ी मासूमियत से बोले, ‘रस्सी पकड़कर!’ पत्नी ने खिड़की से झांककर नीचे देखा और विस्मित होकर बोली, ‘रस्सी नहीं, सांप था!’

पति की इस अथाह आसक्ति को देखकर पत्नी रत्नावली तुलसीदासजी को डाँटते और ग़ुस्सा होते हुए बोली, ‘अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।’  अर्थात् मेरी देह से जितना प्रेम करते हो, इतना प्रेम यदि राम से करते, तो आपका जीवन धन्य हो जाता।

तुलसीदासजी इतनी कठिनाइयों का सामना करके जैसे-तैसे पत्नी रत्नावली के पास पहुँचे थे। उन्हें आस थी की पत्नी उनके इस प्रयास को सराहेगी लेकिन उनकी आशा के विपरीत पत्नी तो तेज़ ग़ुस्से में थी। पत्नी का रौद्र रूप और काँटे से चुभने वाले शब्द तुलसीदास के हृदय में उतर गए। वे उसी समय वहाँ से निकले और चित्रकूट में एक कुटिया बनाकर प्रभु श्री राम की भक्ति में लीन रहने लगे। कुछ वर्षों बाद तुलसीदास जी को भगवान राम और हनुमान जी का साक्षात्कार हुआ और भक्तिभाव में तुलसीदासजी ने रामचरित्र मानस, संकटमोचन, हनुमान चालीसा आदि अनेकों ग्रंथ की रचना की।

जी हाँ दोस्तों,  जीवन की दिशा बदलने के लिए एक वाकया, एक शब्द, एक व्यक्ति ही काफी होता है। जीवन में सफल होने के लिए आपको दुश्मनों, विरोधियों, आपकी टांग खींचने वालों, सब की ज़रूरत पड़ती है क्यूंकि जब यह लोग हमें हुनर, क्षमता, योग्यता होते हुए भी असफल करार देते हैं तो हम स्व-प्रेरणा से खुद को सही सिद्ध करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं। सोचकर देखिएगा…

मेरी नज़र में दोस्तों निम्न परिस्थितियों ने हमको हमेशा ही बेहतर बनाया है-
1) जब भी किसी ने मज़ाक़ उड़ाया है, हम ने खुद को सही सिद्ध करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है।
2) जब भी हमें धोखा मिला है, हम निराशा में भगवान की शरण में गए हैं और वहाँ खुद को एकाग्रचित्त कर, जोरदार वापसी करी है।
3) जब भी किसी ने डराया या धमकाया है, हम पहले से अधिक साहसी बनें हैं।
4) जब भी किसी ने ‘ना’ कहा है, हमने वह कार्य खुद करके, अपने को पहले से बेहतर और स्वतंत्र बनाया है और हम आत्मनिर्भर बनें हैं, अपने पैरों पर खड़े हुए हैं।
5) जब भी किसी ने बीच रास्ते में छोड़ा है, हमने आगे का रास्ता खुद बनाया है।

इतना ही नहीं दोस्तों, सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि उपरोक्त कार्य करने की ऊर्जा और प्रेरणा हमें हमारी आंतरिक शक्ति से  ही मिलती है। इसीलिए मैंने कहा था, हम सभी को ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो हमें निराश करें, हमारी आशा के विपरीत कार्य करें क्यूँकि यही लोग तो हमें ईश्वर और खुद पर विश्वास करना सिखाते हैं और यही विश्वास हमें नई चीज़ें सीखने की प्रेरणा देता है और हम पहले से बेहतर बन, कार्य करके सफल हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है और ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहाँ निराशा के चरम पर जाने के बाद भी लोगों ने इतिहास लिखा है।

यह बात सही है कि निराशा के दौर में कई बार हमें बहुत बुरा लगता है और हम आत्मविश्वास खोने की वजह से अकेला रहना पसंद करते हैं। अर्थात् हम निराशा वाले विचारों के चक्रव्यूह में उलझकर रह जाते हैं, उससे बाहर निकलना पसंद नहीं करते हैं। अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि निराशा का अंतिम बिंदु आपकी उपलब्धियों की शुरुआत है। यह स्थिति बिल्कुल ऐसी रहती है जैसे बंद दरवाज़ा खोलने के प्रयास में इतना मग्न हो जाना कि पास में खुले दूसरे दरवाज़ की ओर देख ही नहीं पाना।

मेरा मानना है अगर निराशा जीवन का एक चरण है तो उपलब्धि जीवन का दूसरा चरण। शायद इसीलिए ‘ब्रेकथ्रू’ में ‘ब्रेक’ पहले आता है। इसलिए दोस्तों अगर सफल होना चाहते हैं तो अब जीवन में कभी निराशा आए, सबसे पहले भगवान को धन्यवाद कहिएगा और उनसे प्रार्थना कीजिएगा कि वे आपको नए रास्ते को पहचानने की शक्ति दें। वैसे भी साथियों हमारे बड़े बुजुर्गों ने कहा है, ‘ठोकर ही ठाकुर बनाती है।’


-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com