फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 

दोस्तों, निंदा और आलोचना दो ऐसी प्रतिक्रियाएँ हैं जो आप कितना ही अच्छा कर लो उसके बाद भी आपको सुनने के लिए मिलेंगी ही। हाल ही में ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। मेरे एक मित्र ने मुझसे फ़ोन कर एक कार्य के लिए मदद माँगी, कार्य के प्रकार, उसकी गम्भीरता और उसमें लगने वाले समय का आकलन कर मैंने उनसे पाँच दिन का समय माँगा और उक्त कार्य को पूर्ण करने के लिए योजना बनाकर, जुट गया। अगले ही दिन मित्र ने मुझे एक बार फिर फ़ोन करा और जानने का प्रयास किया कि उक्त कार्य को करने में कोई दिक़्क़त तो नहीं आ रही है। वैसे कार्य की प्रगति को जानने के लिए किए गए इस फ़ोन को आप रिमाइंडर कॉल के भी रूप में देख सकते हैं। मित्र की व्याकुलता देख मैंने प्रतिदिन सुबह उन्हें कार्य की प्रगति के बारे में बताना शुरू कर दिया।

ईश्वर की कृपा से छठे दिन मैंने उस कार्य को सफलता पूर्वक पूर्ण कर लिया। उसी दिन मेरे मित्र की बिटिया का जन्मदिन भी था। मैंने पहले बिटिया को बधाई देने और फिर मित्र से बात करने का निर्णय लेते हुए, बिटिया को फ़ोन किया। बधाई और सामान्य बातचीत के बाद जब मैंने उससे पिता से बात करवाने के लिए कहा तो वह बोली, ‘अंकल, पिताजी को तो आज दोपहर से बुख़ार है और वे अभी दवा खाकर आराम कर रहे हैं।’ बिटिया से मित्र की स्थिति जान मैंने कार्य सम्बन्धी चर्चा को टालने का निर्णय लिया और कार्य पूर्ण कर काग़ज़ों को गूगल ड्राइव पर साझा कर, मित्र को ईमेल कर दिया।

अगले दिन मित्र की ख़राब तबियत को ध्यान में रखते हुए मैंने उन्हें डिस्टर्ब नहीं करने का निर्णय लेते हुए फ़ोन नहीं किया। मित्र ने मेरे इस मानवीय दृष्टिकोण का ग़लत अर्थ निकालते हुए, सुबह लगभग 11.30 बजे फ़ोन किया और कटाक्ष करते हुए कहा, ‘अब तू बड़ा आदमी हो गया है ना, इसलिए अब हमारे लिए वक्त क्यों निकालेगा?’ मैंने मित्र को शांत करते हुए बिटिया से हुई बात, कार्य की प्रगति और रिपोर्ट साझा करने तक की पूरी बात बताई और उसके स्वास्थ्य के विषय में पूछा, उसके बाद कुछ देर सामान्य बातचीत करते हुए बात खत्म की। मुझे लग रहा था कि अब सब कुछ सामान्य हो गया है लेकिन थोड़े ही देर बाद मेरे पास वापस से मित्र का मेसेज आया, ‘तुम्हें कार्य की गम्भीरता को देखते हुए ईमेल के स्थान पर काग़ज़ों को व्हाट्सएप पर साझा करना चाहिए था। ईमेल को कौन चेक करता है?’ मैंने इस विषय में स्पष्टीकरण देने के स्थान पर मित्र से माफ़ी माँगते हुए बात को खत्म करने का निर्णय लिया।

असल में दोस्तों आपके द्वारा किए गए हर कार्य का मूल्याँकन दूसरे पक्ष द्वारा दो तरह से किया जाता है। पहला, सही स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए, क्या सही है और क्या ग़लत जानने के लिए आकलन करना। दूसरा, मैं सही हूँ सिद्ध करने के लिए आपके द्वारा किए गए कार्य का गलती निकालने के उद्देश्य से आकलन करना। उदाहरण के लिए कई लोग चंद्रमा की चाँदनी में शीतलता देखते हैं तो कई को चंद्रमा में दाग दिखाई देता है। 

असल में दोस्तों, यह दृष्टिकोण का मामला है। किसी भी परिस्थिति, कार्य, संवाद आदि पर प्रतिक्रिया दो लोगों के दृष्टिकोण पर आधारित होती है। जैसे उपरोक्त उदाहरण में, मैंने मेरे दृष्टिकोण से 7 दिन का कार्य 6 दिन में पूरा कर, मित्र के स्वास्थ्य को देखते हुए फ़ोन के स्थान पर ईमेल द्वारा सूचित कर दिया था। लेकिन मित्र के दृष्टिकोण के आधार पर यह अधूरा था क्यूँकि संवाद का अंत उसकी अपेक्षानुसार नहीं हुआ था। 

दोस्तों, हर परिस्थिति, हर कार्य, हर संवाद में दो दृष्टिकोण भाग लेते हैं पहला हमें क्या सही लगता है और दूसरा क्या सही है। अगर आप हर कार्य, संवाद या परिस्थिति को पहले दृष्टिकोण से देखते हैं तो आपको सामान्यतः हताशा और निराशा मिलेगी। लेकिन अगर आप अपनी अपेक्षाओं को दरकिनार रखते हुए कार्य, संवाद या परिस्थिति को दूसरे दृष्टिकोण अर्थात् क्या सही है के आधार पर देखेंगे तो अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए, सर्वोत्तम तरीके से कार्य कर पाएँगे और महान परिणाम पा पाएँगे। जी हाँ दोस्तों, तारीफ़, सराहना, अपेक्षा, निंदा, निराशा और हताशा की भावना को दरकिनार करते हुए, ‘क्या सही है’ के आधार पर प्रतिबद्ध रहते हुए समाज को अपना श्रेष्ठतम और सर्वोत्तम देकर ही हम जीवन में शांत और सफल बन सकते हैं।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com