फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
 

दोस्तों, आईए आज के शो की शुरुआत एक बहुत ही छोटी लेकिन बच्चों के लालन-पालन के तरीक़े में होने वाली चूक को बहुत ही अच्छे तरीके से समझाने वाली एक प्यारी सी कहानी से करते हैं। यक़ीन मानिएगा अगर आपने गम्भीरता के साथ इससे मिली सीख पर काम कर लिया तो ना सिर्फ़ बच्चे बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों, दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों के साथ भी आप अपने रिश्ते को बेहतर बना पाएँगे। तो चलिए शुरू करते हैं-

बात कई वर्ष पुरानी है, रविवार का दिन होने की वजह से आज घर का माहौल बदला हुआ सा था। पिता जो सामान्यतः अपने कार्य की वजह से पूरे समय व्यस्त रहते थे, आज बिलकुल फ़्री थे। उनकी व्यस्तता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं  कि माह में 20 दिन वे सुबह बच्चे के उठने के पहले घर से निकल ज़ाया करते थे और रात को उसके सोने के बाद घर पहुँचा करते थे।

कई दिनों बाद, आज उन्होंने पूरा रविवार परिवार के साथ बिताने का निर्णय लिया था। इसलिए बच्चे के उठते ही वे उसके साथ खेलने में व्यस्त हो गए। बच्चा भी पिता का साथ पा बहुत खुश था। काफ़ी देर खेलने के बाद बच्चे को भूख सताने लगी, वह तुरंत दौड़ता हुआ अंदर गया और अपनी माँ से खाने के लिए दो सेब ले आया। बच्चे के दोनों हाथों में सेब देख पिता को भी हल्की भूख का एहसास होने लगा। उन्होंने अपने बच्चे को मुस्कुराते हुए कहा, ‘बेटा चिंटू, क्या तुम मुझे एक सेब दे सकते हो? मुझे भी भूख लगने लगी है।’ बेटे ने पिता की बात का जवाब देने के स्थान पर अपने दाएँ हाथ के सेब को कुतर लिया। पिता समझ नहीं पाए कि बच्चा क्या कर रहा है? वे इस विषय में बच्चे को कुछ बोलने ही वाले थे कि बच्चे ने बाएँ हाथ के सेब को भी कुतर लिया।

बेटे की इस हरकत को देखते ही पिता का पारा सातवें आसमान पर था। उनके चेहरे से मुस्कुराहट ग़ायब हो गई थी। उन्हें अपने बच्चे के साथ-साथ पत्नी पर भी बहुत तेज़ ग़ुस्सा आ रहा था। वे सोच रहे थे कि पत्नी, बच्चे को संस्कार देने में पूरी तरह असफल रही है। वे अपने बच्चे को इस हरकत के लिए डाँटने ही वाले थे कि अचानक बच्चा उनके पास आया और मुस्कुराते हुए एक सेब पिता की ओर बढ़ाते हुए बहुत ही मीठी आवाज़ में बोला, ‘पिताजी, यह वाला सेब आप ले लो। यह बहुत मीठा है।’ बच्चे के शब्दों ने पिता को निशब्द कर दिया था, उन्होंने बच्चे को उठाया और गले से लगा लिया।

वैसे तो दोस्तों कहानी अपने आप में ही सब-कुछ कह देती है लेकिन फिर भी इसे मैं आपको अपने नज़रिए से समझाने का प्रयास करता हूँ। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं जीवन या ज़िंदगी से मिलने वाले हमारे अनुभव उतने ही मज़बूत होते जाते हैं और यही अनुभव हमें किसी भी व्यक्ति, घटना या परिस्थिति के लिए धारणा बनाने को मजबूर करते हैं। शायद इसी वजह से हम कभी कभी पूरी बात जाने बिना निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। इसके ठीक विपरीत बच्चे एकदम नैचुरल अर्थात् स्वाभाविक, प्राकृतिक और निष्पक्ष होते हैं। वे हमेशा तात्कालिक बातों, अनुभवों पर आधारित निर्णय लेते हैं इसीलिए वे आपसे एक पल में ग़ुस्सा तो दूसरे ही पल में प्यार करने लगते हैं।

इतना ही नहीं दोस्तों, हमारी धारणाएँ उनके आधार पर लिए गए हर निर्णय के कारण और मज़बूत होती जाती है और धीरे-धीरे हमारा वहीं नज़रिया बन जाती है। यही नज़रिया फिर जीवन, लोगों और परिस्थितियों पर आधारित निर्णय को प्रभावित कर धीरे-धीरे हमारी जीवनशैली में परिवर्तित हो जाता है। दोस्तों यह एक ऐसा चक्र है जिसे बिना जागरूक रहे तोड़ना लगभग नामुमकिन ही है। याद रखिएगा दोस्तों, नजर का आपरेशन तो सम्भव है, पर नजरिये का नही। इसलिए अगर आप अपने जीवन में इस चक्र को तोड़ना चाहते हैं तो आज से कोई भी निर्णय को तटस्थ और जागरूक रहते हुए लेने का प्रयास करें और साथ ही अंतिम निर्णय से पहले स्थितियों को सामने वाले के नज़रिए से भी देख लें।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com