फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 

दोस्तों, आज एक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यशाला में ब्रेक के दौरान एक शिक्षक मेरे पास आए और बोले, ‘सर, आपके नज़रिए से बच्चे के जीवन में एक शिक्षक की क्या भूमिका होनी चाहिए?’ कुछ पलों तक चुप रहने के बाद मैंने उनसे कहा, ‘सर, इस प्रश्न का उत्तर मैं आपको एक घटना से देने का प्रयास करता हूँ।’ 

बात कुछ वर्ष पुरानी है, एक बुजुर्ग व्यक्ति रोज़ सुबह बगीचे में टहलने ज़ाया करते थे। अपनी सुबह की सैर पूर्ण करने के बाद वे बगीचे में ज़मीन पर गिरे फूलों को साथ लाई थैली में इकट्ठा करते और उन्हें लेकर अपने घर चले ज़ाया करते थे। बगीचे में घूमने वाले लोगों को उनका यह तरीक़ा बहुत अटपटा लगता था। अटपटा इसलिए क्यूँकि कोई भी सामान्य व्यक्ति बगीचे में ज़मीन पर गिरे फूलों को नहीं उठाता था। बल्कि सामान्यतः लोग पूजा के लिए फूल पौधों से चुनकर ले जाया करते थे।

उस बगीचे में घूमने आने वाले एक अन्य सज्जन ने एक दिन अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उनसे इस विषय में चर्चा करने का निर्णय लिया और सुबह की सैर पूरी करते ही उनके पास गया और उन्हें नमस्कार करते हुए उनसे प्रश्न पूछते हुए बोला, ‘अंकल, आपका इस तरह ज़मीन से फूल उठाकर, थैले में डालकर ले जाना मुझे थोड़ा अटपटा लगता है।’ बुजुर्ग व्यक्ति मुस्कुराते हुए बोले, ‘क्यूँ?’ बुजुर्ग व्यक्ति से जवाब के स्थान पर प्रश्न मिलते ही वे सज्जन बोले, ‘मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ, आप इन ज़मीन से उठाए फूलों का करते क्या होंगे।’ बुजुर्ग व्यक्ति उसी मुस्कुराहट के साथ, पूरी गम्भीरता से बोले, ‘मैं इन्हें अपने घर ले जाकर पूजा के दौरान भगवान को अर्पण करता हूँ।’ 

बुजुर्ग व्यक्ति के जवाब ने सज्जन को दुविधा में डाल दिया क्यूँकि उन्होंने इन बुजुर्ग व्यक्ति के सिवा किसी अन्य को ज़मीन से उठाए हुए फूल को ईश्वर को चढ़ाते हुए नहीं देखा था। सज्जन ने बिना ज़्यादा सोच विचार किए तुरंत उस बुजुर्ग व्यक्ति को एक सुझाव दे दिया, ‘अंकल, अगर ईश्वर को ही फूल चढ़ाने हैं तो ज़मीन पर गिरे हुए ही क्यूँ? आप भी अन्य लोगों की भाँति पौधे से फूल चुनकर ले जा सकते हैं।’ उस युवा की बात सुनते ही बुजुर्ग व्यक्ति और ज़्यादा गम्भीर हो गए और बोले, ‘मैं अपने लिए नहीं, बल्कि फूलों की अभिलाषा को पूरा करने के लिए उन्हें भगवान को अर्पण करता हूँ।’ अब तो उस युवा की जिज्ञासा सातवें आसमान पर थी, ‘फूलों की अभिलाषा? मतलब…’, उस युवा ने पूछा। बुजुर्ग व्यक्ति उसी गम्भीरता के साथ बोले, ‘देखो, हर फूल चाहता है कि उसे ईश्वर को चढ़ाया जाए, हमारी तरह वह भी अपने अंतिम समय में प्रभु के चरणों में रहना चाहता है। लेकिन किसी ना किसी वजह से टूटकर, ज़मीन पर गिरकर, वहीं खत्म हो जाता है। मैं तो बस उन्हें उठाकर ईश्वर के चरणों तक पहुँचा देता हूँ और उनकी इच्छा पूर्ण कर देता हूँ।’ 

कुछ पलों के लिए तो युवा समझ ही नहीं पाया कि वह किस तरह की प्रतिक्रिया दे। बुजुर्ग व्यक्ति ने युवा को शांत देख बात आगे बढ़ाते हुए उसी युवा से प्रश्न पूछ लिया, ‘चलिए आप ही बताइए, पौधे पर लगी एक कली को फूल बनने से पहले तोड़कर अपनी इच्छाओं के लिए प्रयोग करना कहाँ तक उचित है? जिस तरह हम अपना पूरा जीवन जीना चाहते हैं, ठीक उसी तरह हमें यह मौक़ा हर जीव या पेड़-पौधे को देना चाहिए।’ उनकी बात सुन युवा निरुत्तर था, उसने बस अपना सिर हिलाकर सहमति जता दी। 

कहानी पूर्ण कर मैं कुछ पल चुप रहा उसके बाद मैंने उन शिक्षक की ओर देखते हुए कहा, ‘सर, उन बुजुर्ग व्यक्ति के पौधे से तोड़कर फूल चुनने के स्थान पर ज़मीन से फूल उठाकर ईश्वर को अर्पण करने के नज़रिए से आप सहमत हैं या नहीं?’ वे तुरंत बोले, ‘सर, बिलकुल, बल्कि अब तो मैं भी ऐसा ही करने के विषय में सोच रहा हूँ।’ मैंने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘सर, बस एक शिक्षक को भी बच्चे के साथ यही करना चाहिए, यही उसका सही उद्देश्य है।’ वे आश्चर्य के साथ मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘मैं समझ नहीं पाया, आप क्या कहना चाहते हैं?’ मैंने कहा ‘सर, हर बच्चा फूल के पौधे पर लगी उस कली के समान ही है। वयस्कों या शिक्षक को अपने सपनों को पूरा करने, परीक्षा में अव्वल लाने अथवा उसे विशेष योग्यता का धनी बनाने की चाह में उसका बचपना नहीं छीनना चाहिए। बल्कि उसे ऐसा माहौल देने का प्रयास करना चाहिए जिससे वह कली से फूल बन सके अर्थात् अपनी योग्यता को पहचानकर उसमें निखार ला सके। वैसे यही तो शिक्षा और पेरेंटिंग का एक उद्देश्य भी है। सही कहा ना साथियों…

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com