फिर भी ज़िंदगी हसीन है… 

इस मंगलवार मध्यप्रदेश के खंडवा शहर के सेंट जोसेफ कॉन्वेंट सीनियर सेकंडरी स्कूल में वर्कशॉप पूर्ण करने के पश्चात मैंने अपने बचपन के एक मित्र से मिलने का निर्णय लिया। लगभग बीस वर्षों बाद हुई इस मुलाक़ात में हम सभी का उत्साह देखते ही बनता था। काफ़ी देर तक एक दूसरे से बात करने के पश्चात मैंने उसके छोटे भाई के विषय में पूछा तो वह बोला, ‘निर्मल अब वह छोटा नहीं रहा, बहुत बड़ा ही नहीं ‘बड़ा वाला’ हो गया है। मित्र के मुँह से यह शब्द सुन मैं हैरान था क्यूँकि बचपन में यही दोनों भाई एक-दूसरे के बिना एक पल भी रहना पसंद नहीं किया करते थे। मैंने फिर भी बात आगे बढ़ाते हुए जब उससे पूछा तो उसने बताया कि अब घर में बँटवारा हो चुका है और भाई ऊपर वाली मंज़िल पर ही रहता है। मित्र को असहज देख मैंने इस विषय में ज़्यादा बात करना उचित नहीं समझा और उसके साथ कुछ अच्छे पल बिताकर वापस आ गया।

दोस्तों, अक्सर हम अपने आस-पास या यूँ कहूँ हमारे परिवार में भी इसी तरह की घटनाएँ घटते हुए देखते हैं। अगर इन सभी घटनाओं में गहराई से जाकर देखा जाए तो ज़्यादातर ग़लतियाँ बहुत ही छोटी-मोटी निकलती हैं। असल में यह सारा खेल अपेक्षा और उपेक्षा या फिर मान-अपमान का है। जी हाँ दोस्तों, अपेक्षा और उपेक्षा या मान और अपमान दोनों का खेल बड़ा ही निराला है। 

चलिए, इसे मैं आपको एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ। मान लीजिए, आपने किसी व्यक्ति को मद्देनज़र रखते हुए एक परिकल्पना करी कि सामने वाला व्यक्ति आपका सम्मान करेगा। मान लीजिए, किसी भी वजह से सामने वाला आपकी इस परिकल्पना को बेवजह की अपेक्षा या सम्मान की चाह मानता है और आपकी अपेक्षा को पूरा नहीं करता है। अब आपके लिए अपेक्षा का पूरा ना होना, अपना अपमान लगता है। 

इसके ठीक विपरीत, मान लीजिए सामने वाला आपकी परिकल्पना या अपेक्षा के आधार पर आपका सम्मान करता है तो आप संतुष्ट हो जाएँगे। इस आधार पर देखा जाए दोस्तों, तो अपेक्षा की उपेक्षा का ही तो नाम अपमान है। ठीक यही स्थिति मुझे खंडवा में अपने मित्र से हुई मुलाक़ात के दौरान महसूस हुई। वह भी अपने भाई से कुछ अपेक्षाएँ रखता था लेकिन उसके भाई की नज़र में वह सभी अपेक्षाएँ उतनी ज़रूरी नहीं या उसकी अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार नहीं थी इसलिए उसने उन अपेक्षाओं की उपेक्षा करी और यही उपेक्षा करना मित्र को बुरा लग गया और दोनों भाइयों के बीच दरार आ गई।

दोस्तों, अगर गहराई से देखेंगे तो आप पाएँगे कि सामान्यतः हम सभी लोग दूसरों से ज़्यादा अपनी सोच से अपमानित होते हैं। जैसे किसी ने नमस्ते नहीं किया तो यह हमारा अपमान हो गया। असल में उसने नमस्कार ना करके तो आपका अपमान शायद एक बार करा होगा, लेकिन उस बारे में बार-बार सोचकर आप अपना अपमान बार-बार कर रहे हैं। यही बात सुख और दुःख के लिए भी कार्य करती है। जैसे अभी हमने समझा, दूसरों से जैसे आचरण की हम अपेक्षा करते हैं वह हो जाए तो इज्जत, अन्यथा बेइज़्ज़ती। ठीक इसी तरह जैसा हमने मन में सोच रखा है, वैसा हो जाए तो सुख, अन्यथा दुःख।

दोस्तों, जो अब मैं आपको बताने जा रहा हूँ उस पर गम्भीरता से विचार कीजिएगा और अगर अच्छा ना लगे तो मुझे माफ़ कर इस बात को भूल जाइएगा, पर भूलने से पहले एक बार पर गम्भीरता पूर्ण विचार ज़रूर कीजिएगा। जो लोग अपने मान-सम्मान या अपमान पर बहुत ज़्यादा सोचते हैं, उसका बहुत अधिक ध्यान रखते हैं, मेरी नज़र में वे ही बेचारे कहलाते हैं। अगर आप अपना जीवन खुश, संतुष्ट और शांत रहकर जीना चाहते हैं तो सबसे पहला कार्य, अपनी सोच को ऊपर उठाने का कीजिएगा। जैसे ही, आपकी सोच मान-सम्मान, अपमान से ऊपर उठकर मुक्त हो जाएगी आप प्रसन्नता के साथ जीवन जीना शुरू कर देंगे।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com