फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
 

दोस्तों, हम सभी जानते हैं कि दान देकर किसी के जीवन को बेहतर और आसान बनाकर उस व्यक्ति में मानवता के प्रति सकारात्मक भाव जगा सकते हैं और साथ ही आत्मिक संतुष्टि पा सकते हैं, अपनी आत्मा को खुश कर सकते हैं। लेकिन पता होने के बाद भी ज़्यादातर लोग इसका लाभ नहीं ले पाते हैं क्यूँकि अक्सर हम सोचते हैं कि इसके लिए हमारा सक्षम होना आवश्यक है। लेकिन हक़ीक़त दोस्तों इसके बिलकुल विपरीत है। इसके लिए आपके पास सिर्फ़ एक प्यारा सा दिल और दूसरों को देने के लिए इच्छाशक्ति का होना आवश्यक है। जी हाँ दोस्तों, सिर्फ़ एक अच्छे दिल और लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की इच्छाशक्ति के साथ दिए गए दान से इस दुनिया को बेहतर बनाया जा सकता है। बस आपको देने के अभिमान और बड़प्पन के भाव से बचना होगा। इसे मैं आपको एक किस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ-

कुछ दिन पूर्व, शीत लहर के दौरान मैंने अपनी बिल्डिंग के सुरक्षा गार्ड को रात्रि लगभग साढ़े 11 बजे के आस-पास ठंड से बचने के लिए सिकुड़ कर बैठा हुआ देखा। मैंने उसी वक्त उनसे शाल, कंबल, स्वेटर या गर्म जैकेट आदि ना पहनने के विषय में पूछने पर वे बोले, ‘सर, मैं आज लाना भूल गया?’ लिफ़्ट से ऊपर जाते समय मेरे मन में विचार आया की इतनी ठंड में कोई गर्म कपड़े लाना कैसे भूल सकता है? मुझे तुरंत समझ आ गया की गार्ड भैया ख़ुद्दारी की वजह से ऐसा बोल रहे हैं। घर पहुँचकर मैंने गार्ड भैया को नई लोई (बड़ा गर्म शाल) देने का निर्णय अपनी पत्नी को बताते हुए, पूरी बात कह सुनाई।

जब तक मैं अंदर से नई लोई निकालता उससे पहले पत्नी ने गर्म चाय बनाई और बिटिया के साथ, गार्ड भैया को देनें के लिए चली गई। कुछ मिनिटों बाद मैं भी लोई गार्ड भैया को दे आया। हालाँकि यह किसी भी रूप में कोई बड़ा कार्य नहीं था, फिर भी इस कार्य को कर हम सभी बड़े खुश थे।

अगले दिन रात्रि भोजन के पश्चात, घूमने के उद्देश्य से मैं नीचे उतरा और अनायास ही मेरी नज़र गार्ड भैया की ओर गई। मेरी आशा के विपरीत कल ही की तरह वे आज भी बिना गर्म कपड़ों के, उसी हालात में बैठे हुए थे, और तो और वह शाल भी उनके पास नहीं थी। उन्हें उस हालात में देख मेरे मन में अच्छे-बुरे दोनों तरह के ख़्याल आने लगे। लेकिन तभी मुझे अपने गुरु श्री एन॰ रघुरामन जी की कही एक बात याद आ गई, ‘जो चीज़ दे दी, उसके बारे में विचार करने से क्या फ़ायदा।’ मैं तुरंत उस बात को नज़रंदाज़ करते हुए घूमने के लिए आगे बढ़ गया।

वॉक पूरी करने के पश्चात लौटाते वक्त मैं सोसायटी के बाहरी गेट पर पहरा दे रहे गार्ड को देख हैरान था। इस दृश्य ने मेरी धारणा बिल्डिंग के गार्ड के प्रति पूरी तरह बदल दी। बल्कि यह कहना ज़्यादा उचित होगा की इस दृश्य ने मेरे अहम को चकनाचूर कर दिया था और मैं स्वयं को बिल्डिंग के गार्ड भैया के मुक़ाबले बहुत छोटा महसूस कर रहा था। असल में सोसायटी के बाहरी गेट पर पहरा दे रहे गार्ड के पास वही लोई अर्थात् गर्म शाल थी, जो मैंने बिल्डिंग के गार्ड भैया को दी थी।

मुझे तुरंत सारा माजरा समझ आ गया। मेरी बिल्डिंग के गार्ड, जो काँच का दरवाज़ा बंद कर लॉबी में बैठते हैं को सोसायटी के गेट पर खुले में बैठे गार्ड भैया की समस्या अपने से बड़ी लगी और उन्होंने खुद परेशानी सहकर उनकी मदद करना बेहतर समझा। आज की मतलबी दुनिया में खुद से ज़्यादा दूसरों के लिए सोचने का यह वाक़या मेरे दिल को छू गया। दोस्तों अकसर हम सभी परेशानी, विपत्ति, चुनौतियों के दौर में ईश्वर से मदद के रूप में चमत्कार की उम्मीद रखते हैं, लेकिन जब स्थितियाँ सामान्य हो जाती हैं, तब उस चमत्कार की ताक़त को भूल जाते हैं। लेकिन अगर दोस्तों आप अपने जीवन का पूर्ण आनंद लेना चाहते हों तो हर हालात, हर परिस्थिति में दूसरों के लिए चमत्कारी अर्थात् ईश्वर का दूत बनने का प्रयास करें, जैसा गार्ड भैया ने किया था। जी हाँ साथियों सोच कर ज़रूर देखिएगा, जब हम निचले स्तर अर्थात् जीवन में चुनौतियों के दौर में होते हैं, तो हम सभी आशा करते हैं कि हमारे साथ चमत्कार होंगे, लेकिन जब हम सक्षम होते हैं, तो क्या हम चमत्कार करने वाले बनने को तैयार होते हैं?

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com