फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


कल एक समूह में अमीर और गरीब लोगों के बीच बढ़ती खाई पर चर्चा चल रही थी। चर्चा में समूह 2 हिस्सों में बँटा नज़र आ रहा था। एक सरकारी नीतियों, हमारी शिक्षा प्रणाली, नौकरी के प्रति आकर्षण को इसके लिए दोषी मान रहा, तो दूसरा समूह इसे राजनैतिक सोच से जोड़ रहा था। दोनों समूह में से कई लोग तो अपने जीवन में घटी घटनाओं के उदाहरणों से अपना पक्ष सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन पूरी चर्चा के दौरान मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा क्यूँकि मैं उनकी बातों और तर्कों से सहमत नहीं था। इस विषय में मेरा मत थोड़ा अलग था। इसका अर्थ यह नहीं कि वे सभी ग़लत थे, पर मेरा मानना था कि जो बातें आपके हाथ में नहीं है, जिन्हें आप बदल नहीं सकते हैं, उन्हें दोष देने या कोसने से क्या फ़ायदा और अगर आप समाज को भी बदलने का उद्देश्य रखते हैं तो भी आपको सबसे पहले खुद को बदलना होगा। इसलिए मुझे तो लगता है इस बढ़ती खाई की सबसे बड़ी वजह हमारी सोच है। अगर आप अमीर बनना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको अपनी सोच को अमीर बनाना पड़ता है और अगर आप समाज को अमीर बनाने के बारे में विचार कर रहे हैं तो आपको समाज की सोच को अमीर बनाना पड़ेगा। इसे मैं आपको पूर्व में कहीं या पढ़ी 1888 में घटित कुराकाओ की एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। इतिहास के आधार पर मुझे इस घटना के बारे में, इसकी सच्चाई के बारे में ज़्यादा नहीं पता है लेकिन फिर भी सीखने की दृष्टि से यह घटनाक्रम जानना बहुत ज़रूरी है।

कुराकाओ शहर दो हिस्सों में बँटा हुआ था और वहाँ के लोग इस कारण काफ़ी परेशान हुआ करते थे। वहाँ के प्रशासन ने लोगों की परेशानी को दूर करने के लिए दोनों हिस्सों के बीच में एक पुल बना दिया। साथ ही उसकी लागत वसूलने के लिए उन्होंने उस पर एक ‘प्रगतिशील कर’ लगाना प्रस्तावित किया। अर्थात् इस कर या टोल का भुगतान सिर्फ़ अमीर लोग करेंगे और गरीब लोग इसका उपयोग मुफ़्त में करेंगे। 

विचार सभी को पसंद आया, लेकिन अब एक नई समस्या थी कि अमीर और गरीब का निर्धारण कैसे हो? काफ़ी मंत्रणा के बाद निर्णय लिया गया कि चूँकि जूते सिर्फ़ अमीर लोग पहनते हैं इसलिए यह कर वे लोग चुकाएँगे। मतलब अगर आप उस पुल को जूते पहनकर पार करेंगे तो आपको कर देना होगा और अगर नंगे पैर करेंगे तो आप उसका निशुल्क उपयोग कर पाएँगे। यहाँ आप यह ज़रूर याद रखिएगा कि हम वर्ष 1888 की बात कर रहे हैं। उपाय एकदम सरल, आसान, सहजता के साथ प्रयोग किया जा सकने वाला और ऐसा विचार था जिससे बचकर निकल पाना आसान नहीं था। यह वाक़ई कमाल का विचार था लेकिन दोस्तों आशा के विपरीत यह विचार पूरी तरह विफल हो गया।

क्या आप अन्दाज़ लगाना चाहेंगे कि यह कर क्यों असफल हो गया? असल में दोस्तों अमीरों ने कर बचाने के लिए जूते उतार कर पुल पार करना शुरू कर दिया और गरीब, गरीब नहीं दिखना चाहते थे इसलिए उन्होंने पहले जूते ख़रीदे या फिर उधार के जूते पहने और उसके बाद कर चुका कर पुल पार किया। 

दोस्तों, अगर आप पूरी घटना को बारीकी के साथ देखेंगे तो आप पाएँगे कि पुल पार करने वाले दोनों समूहों में सबसे बड़ा अंतर सोच का ही था। इसका अर्थ यह हुआ साथियों ग़रीबी असल में हमारे दिमाग़ में रहती है और यह एक मानसिक स्थिति है। गरीब इस ग़रीबी को छिपाने में तर्कहीन तरीक़े अपनाता है, इसके विपरीत दिखावे से दूर रहकर और पैसे बचाकर अमीर, अमीर बना रहता है। जबकि गरीब दिखावे के चक्कर में हैसियत से ज़्यादा खर्च कर और गरीब होता जाता है। इसे आप सामान्य परिस्थितियों में फ़ाइनैन्स पर सामान इकट्ठा करने की आदत से जोड़कर देख सकते हैं। 

अमीर और गरीब की सोच में एक और बड़ा अंतर होता है। अमीर जहाँ अच्छे वित्तीय सलाहकारों की सलाह पर आगे बढ़ता है, वहीं गरीब इस विषय में खुद को सर्वश्रेष्ठ मान एक के बाद एक कई ग़लतियाँ करता है। याद रखिएगा दोस्तों, अमीरी थाली में परोस कर दी जा सकने वाली कोई डिश नहीं है बल्कि एक ऐसी सोच है जिस पर रोज़ जागरूक रहते हुए काम करना होगा। 

दोस्तों, अगर आपको उपरोक्त विचार अच्छा लगा हो तो आज से एक प्रश्न खुद से पूछना शुरू कर दें, ‘क्या आप किसी "पुल" को पार करने के लिए "जूते उधार" तो नहीं ले रहे हैं?’

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 
dreamsachieverspune@gmail.com