कथनी नहीं करनी बनाएगी आपको लीडर!!!

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों इस दुनिया में हर कोई लीडर बनना चाहता है। लेकिन अकसर उसे समझ ही नहीं पाता है कि कौनसी बातें या योग्यताएँ उसे महान लीडर बना सकती है। वह हमेशा उलझन में रहता है कि क्या वो योग्यता ‘करिश्माई व्यक्तित्व’ का होना है? या ‘साहस’ ज़्यादा मायने रखता है? नहीं-नहीं, शायद ‘दूरदर्शिता’ ज़्यादा ज़रूरी है? अगर यह भी नहीं तो उपरोक्त सभी सही हो सकते हैं, या उपरोक्त में से कोई नहीं, या फिर सभी का मिलाजुला रूप? लीडर बनने के लिए बस ऐसी ही अनेक दुविधाएँ हमारे मन में आती रहती हैं।
प्रभावी लीडर बनने के लिए सटीक जवाब ना मिल पाने का अर्थ यह नहीं है दोस्तों कि इस लक्ष्य को पाना इतना कठिन है या इसे पाने में बहुत सारा समय लगाना होगा। सच्चाई तो यह है कि महान लीडर की योग्यताएँ पारिस्थितिक तथ्यों पर निर्भर करती हैं, जहाँ लीडर या लीडरशिप की आवश्यकता है। जैसे यह एक कम्पनी के लिए और एक सामाजिक संस्था के लिए अलग-अलग हो सकती हैं।
ईमानदारी, विश्वसनीयता, उच्च नैतिक मूल्य आदि कुछ ऐसे गुण है जो आपको हर महान लीडर में देखने को मिलेंगे और साथ ही यह गुण बाक़ी क्षेत्रों में कमी होने के बाद भी आपको सफल और स्वीकार्य बना सकते हैं। लेकिन अकसर हम इन इन्हीं बातों पर ध्यान देना चूक जाते हैं क्यूँकि नैतिक मूल्यों का पालन करने से कहीं आसान हमें उनसे समझौता करना लगता है।
अगर आप वाक़ई महान लीडर बनना चाहते हैं तो याद रखिएगा, आप क्या कहते हैं से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है, आप क्या करते हैं। याद रखिएगा लोग हमेशा इस बात पर ज़्यादा ध्यान देते हैं कि जो आप कहते हैं उसे आप खुद अमल में लाते हैं या नहीं। यदि आपका नेतृत्व संदेश आपके नेतृत्व के साथ संरेखित नहीं होता है, तो एक लीडर के रूप में आपका मूल्य घटने लगता है। जब नेतृत्व या लिडरशिप की बात आती है, तो आपके पास कार्रवाई के साथ अपने शब्दों का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। इसे मैं आपको स्वामी विवेकानंद की एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।
स्वामी विवेकानंद को संन्यासी बने अभी कुछ ही वक्त हुआ था और वे सभी प्राणियों को समान भाव से देखने के, सीखे गए पाठ पर मनन करने के साथ-साथ अपना ज़्यादातर समय ग्रामीण अंचलों का भ्रमण करने में बिताया करते थे। इस दौरान उन्हें जब भी समय मिलता था वे ग्रामीणों को सदाचारी बनने और दुर्व्यसनों से दूर रहने का उपदेश दिया करते थे।
एक दिन स्वामी जी गर्मी के मौसम में दोपहर को एक गाँव से गुजर रहे थे। अत्यधिक गर्मी के कारण स्वामी जी प्यास से व्याकुल थे उन्होंने चलते चलते अपने आस-पास पानी की तलाश करना शुरू कर दिया था। एक खेत के पास से गुजरते समय उनका ध्यान खेत की मेड़ पर बैठे एक किसान पर गया जो लोटे से पानी पी रहा था। उन्होंने तुरंत उससे कहा, ‘भैया मुझे भी थोड़ा पानी पिला दो।’
स्वामी जी को भगवा कपड़ों में देखते ही उस किसान ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘महात्मा, मैं नीच जाती का हूँ। आपको अपने हाथों से पानी पिलाकर मैं पाप का भागी नहीं बनना चाहता हूँ।’ किसान के मुख से यह सुनते ही स्वामी जी आगे बढ़ गए। लेकिन कुछ ही क्षणों में उन्हें एहसास हुआ कि साधु बनने के लिए वे जात-पात, परिवार तथा पुरानी प्रचलित गलत प्रथाओं का पहले ही त्याग कर चुके हैं। वे मन ही मन स्वयं से प्रश्न करने लगे, ‘जब मैं इन सब का त्याग कर चुका हूँ तो मैंने उस निश्छल ग्रामीण किसान को इस बारे में क्यों नहीं बताया? उससे आग्रह करके, पानी क्यों स्वीकार नहीं किया? इसका अर्थ हुआ कि मेरा सोया हुआ जाति अभिमान जाग उठा है, यह तो अधर्म हो गया।’
वे तुरंत किसान के पास लौटकर आए और बोले, ‘भैया, मुझे क्षमा करना। मैंने तुम जैसे निश्छल परिश्रमी व्यक्ति के हाथों से पानी न पीकर घोर पाप किया है। निम्न जाति तो उसकी होती है, जो दुर्व्यसनी और अपराधी होता है।’ इतना कहते ही स्वामी जी ने उसके हाथ से लोटा लेकर पानी ग्रहण किया। इस घटना के बाद अपने पूरे जीवन में स्वामी जी ने खुलकर ऊँच-नीच की भावना का विरोध किया।
जी हाँ दोस्तों, महान लीडर बनने के लिए सिर्फ़ एक आदत अपने अंदर विकसित करें, ‘वही करें, जो आप दूसरों को करने के लिए कहते हैं।’ या शायद यह कहना बेहतर होगा कि, ‘अपने मुँह से सिर्फ़ उसी बात को बाहर आने दें जिनका पालन आप अपने जीवन में करते हैं।’ याद रखिएगा लोग उपदेश से नहीं उदाहरण से अधिक सीखते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com