फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
 

बात कई वर्ष पुरानी है, जब व्यापार में काफ़ी नुक़सान होने की वजह से मैं काफ़ी परेशान चल रहा था। नुक़सान की सबसे बड़ी वजह अचानक से कम्प्यूटर के व्यवसाय को बंद करना था। परेशानी के उस दौर में, कई बार मैं खुद के लिये निर्णय पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया करता था और जब भी उलझन बढ़ जाती थी तो अपने गुरु, मित्र या परिवार के सदस्यों से उस पर सलाह लिया करता था।

एक दिन मैं किसी समस्या के समाधान को खोजने के प्रयास में काफ़ी देर से विचारों के चक्रव्यूह में उलझा हुआ था, लेकिन किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पा रहा था। अपनी आदतानुसार मैंने अपने अच्छे और करीबी दोस्त श्री समरजीत सिंह साहनी की मदद लेने का निर्णय लिया और फ़ोन कर मैं तुरंत उनके पास पहुँच गया। अपनी वर्तमान परिस्थिति बताते हुए मैंने उनसे प्रश्न करा, ‘भाई, लोग इस तरह के अनैतिक कार्य कैसे कर लेते हैं? क्या उन्हें पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे से डर नहीं लगता?’

मेरी बात सुन मित्र समर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अगर उसे यह कार्य बुरा या पाप लगता तो सामने वाला करता ही क्यों?’ समर भाई ने बात तो एकदम स्पष्ट और एक ही बार में समझ आने वाली कही थी। लेकिन फिर भी मैंने अपने परेशानी भरे नज़रिए से सोचते हुए कहा, ‘तो फिर क्या लोगों के लिए पाप और पुण्य भी अलग होता है?’ मेरे इस प्रश्न का जो जवाब मित्र ने दिया दोस्तों वह मेरे लिए जीवन की एक बड़ी सीख बन गया था।

समर भाई बोले, ‘जिस कार्य को करते समय आपके अंदर की आवाज़ आपका समर्थन करे वह पुण्य है और जिसमें आपकी आत्मा आपको टोके या रोके, वह पाप है।’ यक़ीन करिएगा दोस्तों, पाप और पुण्य की इतनी सरल और व्यवहारिक परिभाषा सुन मैं हैरान था और तब से लेकर आज तक किसी भी कार्य को करते समय या कोई भी निर्णय लेते समय मैं अपने अंतर की आवाज़ को महत्व देता हूँ।

आज एक शिक्षिका को मैंने उक्त घटना काउन्सलिंग के दौरान सुनाई तो कुछ पल ख़ामोश रहने के बाद वे मुझ से बोली, ‘सर, आप कह तो बिलकुल सही रहे हैं लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मेरे मामले में मेरा अंतर्मन कुछ बोलता ही नहीं है।’ उनकी बात सुन मैं मुस्कुरा दिया और उन्हें एक बोध कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी-

एक सज्जन सुबह लगभग 5 बजे किसी विचारों में खोए हुए बैठे थे और उस शांत वातावरण में उन सज्जन की साँसों के अलावा सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक की आवाज़ ही सुनाई दे रही थी। विचारों में खोए-खोए कब 3 घंटे बीत गए उन सज्जन को पता ही नहीं चला। उनकी तंद्रा तो तब टूटी जब उनका नौकर रामू उनके लिए चाय लेकर आया।

रामू से चाय लेकर उन सज्जन ने पहला घूँट ही पिया था कि उनका ध्यान घड़ी की ओर गया क्यूँकि अब उन्हें घड़ी की टिक-टिक सुनाई नहीं दे रही थी। उन्होंने तुरंत रामू को आवाज़ देते हुए कहा, ‘रामू देखो घड़ी बंद तो नहीं हो गई है इसमें से टिक-टिक की आवाज़ आना बंद हो गई है।’ रामू तुरंत वहाँ आया और कुछ पलों तक घड़ी को देखने के बाद बोला, ‘मालिक घड़ी तो बराबर चल रही है। बस बाहर के शोर की वजह से आपको उसकी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है।’

बोध कथा खत्म होते ही मैंने उन शिक्षिका की ओर देखते हुए कहा, ‘मैडम, अंतर्मन आपको सही रास्ता नहीं दिखाता, ऐसा तो मुझे असम्भव ही लगता है। जब भी हम कोई काम करते हैं, हमारे अंतर्मन से एक आवाज़ आती है, जो हमें सही क्या है और ग़लत क्या, यह बताने का प्रयास करती है। लेकिन अक्सर हम विचारों की उथल-पुथल के कारण उस आवाज़ को सुन नहीं पाते हैं या कई बार तात्कालिक लाभ की वजह से उसे सुनकर भी अनसुना कर देते हैं।

दोस्तों, अगर आप दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सलाह चाहते हैं तो अपने अंतर्मन की आवाज़ को सुनना शुरू कर दें, वह सौ प्रतिशत जानती है कि कब, क्या और कैसे करना है। इसके लिए बस आपको अपने अंदर शांति लाना होगी अर्थात् विचारों की उथल-पुथल को शांत करना होगा। सामान्यतः विचारों की यह उथल-पुथल हमारी इच्छाओं और वासनाओं की वजह से होती है। अगर आप इन पर विजय प्राप्त कर लें, तो आप निश्चित तौर पर अपने मन को क़ाबू में करके अंतर्मन की आवाज़ सुन पाएँगे। याद रखिएगा दोस्तों, मन को जीते बिना दुनिया जीतना या जीवन के अंतिम लक्ष्य खुश और सुखी रहते हुए मोक्ष प्राप्त करना सम्भव नहीं हो पाएगा क्यूँकि मनुष्य का मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com