फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


आईए दोस्तों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। हिमालय की तराई में एक बहुत पहुँचे हुए संत रहा करते थे। अक्सर वे एक शहर से दूसरे शहर घूमकर धर्म का प्रचार किया करते थे और साथ ही लोगों के मन की दुविधाओं को दूर कर उन्हें जीवन जीने की कला सिखाया करते थे। इसी वजह से अक्सर प्रवास के दौरान बहुत सारे अनुयायी उनके साथ हो लिया करते थे। 

एक दिन ऐसे ही प्रवास के दौरान, जंगल से गुजरते वक्त एक व्यक्ति को गाय चराता देख वे ठिठक कर रुक गए। वह दृश्य था भी कुछ ऐसा ही, गाय मालिक को अपनी ओर खींचकर सामने दिख रही हरी घास की ओर ले जाना चाहती थी वहीं दूसरों ओर मालिक को लग रहा था कि गाय ने अच्छे से घास चर लिया है और वह उसे खींचकर अपने घर ले जाना चाह रहा था। 

संत बहुत देर तक इस खींचा-तानी को देखते रहे और देखते-देखते ही महात्मा को बहुत जोर की हंसी आ गई। उन्हें ऐसा करते देख सभी अनुयायी भी जोर-जोर से खिलखिलाकर हंस पड़े। सबको हँसता देख गाय का मालिक सकपका गया और महात्मा जी के पास आकर बोला, ‘प्रणाम महाराज!, गाय तो जानवर है वो हठ कर सकती है, लेकिन आप सब मेरी हंसी उड़ा रहे हैं, क्या यह उचित है? मैं तो सिर्फ़ अपना कर्म कर रहा था।’ चरवाहे की बात सुन महात्मा जी ने तुरंत माफ़ी माँगी और बोले, ‘भाई आपको ग़लतफ़हमी हो गई है, मैं आप पर नहीं अपितु स्वयं पर हंस रहा हूँ।’ ‘स्वयं पर? इसका तो मुझे कोई कारण नज़र नहीं आता।’ चरवाहा बोला।

चरवाहे की बात सुन महात्मा जी ने अपना झोला ऊपर उठाया और बोले, ‘वत्स, ‘मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं इस झोले का मालिक हूँ, या यह झोला मेरा मालिक है?’ चरवाहा बोला, ‘इसमें इतना सोचने की क्या बात है? झोला आपका है, तो आप इसके मालिक हुए। जैसे ये गाय मेरी है और मैं इसका मालिक हूँ।’ चरवाहे की बात सुनते ही संत एकदम गम्भीर हो गए और बोले, ‘वत्स, यही तो गलती अक्सर हम करते हैं, हम मोह वश खुद को फ़ालतू चीजों के बंधन में बांध लेते हैं और सोचते हैं यह मेरा है या मैं इसका मालिक हूँ। जैसे तुम ने स्वयं को गाय का मालिक माना और मैंने स्वयं को इस झोले का। जबकि हक़ीक़त बिलकुल इसके उलट है, असल में यह झोला मेरा मालिक है और मैं इसका ग़ुलाम। तुम खुद सोचकर देखो, क्या इस झोले को मेरी ज़रूरत है? बिलकुल नहीं! जबकि मुझे इसकी ज़रूरत है। अगर अभी भी मेरी बात नहीं समझे तो अपनी गाय की रस्सी छोड़ कर देख लो, अभी पता चल जाएगा कौन किसका मालिक है। याद रखना, जो जिसके पीछे गया वो उसका ग़ुलाम।’ इतना कहकर संत ने अपना झोला फेंक दिया और जोर से हंसते हुए, अपनी मस्ती में चल दिए।

दोस्तों, बिलकुल यही स्थिति तो हम लोगों की भी होती है, हम स्वयं को नाहक ही दुनियादारी, बुरी आदतों, भौतिक ज़रूरतों के बंधन में बांध लेते हैं और कहते हैं, ‘फ़लाँ चीज़ हमसे छूट नहीं रही या फ़लाँ काम तो मैं जीवन में कभी कर नहीं पाऊँगा, आदि। इसे गहराई से समझने के लिए उदाहरण के लिए बुरी आदतों को ही ले लीजिए। जब भी किसी से आप बुरी आदत छोड़ने के विषय में बात करोगे तो आप एक ही जवाब सुनोगे, ‘मैं तो इसे छोड़ना चाहता हूँ, लेकिन क्या करूँ बार-बार कोशिश करने के बाद भी सफल नहीं हो पा रहा हूँ।’ मानो उस बुरी आदत ने उस व्यक्ति को कस कर पकड़ रखा हो। 

इसीलिए दोस्तों जब भी कोई मुझसे बुरी आदतों को छोड़ने के विषय में उपरोक्त बात करता है तो मैं उनसे एक ही प्रश्न पूछता हूँ, ‘आप बड़े हैं या आपकी आदतें?’ निश्चित तौर पर हर व्यक्ति स्वयं को अपनी आदतों से बड़ा मानता है। जब वह खुद को बड़ा बताता है, तो मैं उससे अगला प्रश्न करता हूँ, ‘अगर आप बड़े हैं तो फिर अपनी आदतों के ग़ुलाम क्यों हैं?’ बात ठीक भी है दोस्तों, अगर मैं बड़ा हूँ, तो मैं अपनी आदतों की ग़ुलामी क्यूँ करूँ? अगर मैं बड़ा और समझदार हूँ तो मैं नए निर्णय लेने में सक्षम हूँ, उन निर्णयों का सम्मान करने में सक्षम हूँ, अपने जीवन को नई दिशा देने में सक्षम हूँ, फिर किसी आदत की ग़ुलामी क्यूँ? 

याद रखिएगा दोस्तों, जब आप अपनी इंद्रियों के ग़ुलाम बन जाते हैं तो आप बुरी आदतों के फेर में पड़ जाते हैं और जब आप अपनी इंद्रियों को वश में रखना सीख जाते हैं तो आप अच्छी आदतों को अपनाना शुरू कर देते हैं। आज से जीवन में सिर्फ़ एक परिवर्तन कीजिए, जीवन को बेहतर बनाने वाले निर्णय लीजिए, उनका सम्मान कीजिए और जीवन में आगे बढ़िए।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर   
dreamsachieverspune@gmail.com