हिंदू धर्म में भगवान की अलग-अलग तरह से आराधना की जाती है. पूजा-पाठ, ध्यान के अलावा संगीत से भी भगवान को प्रसन्न किया जाता है. बुंदेलखंड में अलग-अलग वाद्य यंत्रों से श्रद्धालु साधना करते नजर आते हैं, जिनमें तमूरा, तारे, झूला, रामतुला के साथ ढांक भी बजाई जाती है. ढांक बजाने की शुरुआत लाला हरदौल के जमाने से शुरू मानी जाती है. इसके बाद उनकी टोलियों द्वारा जगह-जगह इसका वादन किया जाता था. करीब 300 साल पहले शुरू हुई ये परंपरा आज भी देखने को मिल रही है. खासकर भैरव मंदिरों में इन्हें बुंदेली भैरव गीतों के साथ बजाया जाता जाता है.

मिट्टी के घड़े से तैयार होती है ढांक
शैलेश केशरवानी बताते हैं कि इसमें मिट्टी का एक घड़ा (मटका) होता है, जिसके अंदर पूजन की सामग्री रखते हैं. इसमें एक दीपक भी जला कर रखते हैं. फूल माला पहनाकर जल अर्पित कर इसका पूजन किया जाता है. मटके के ऊपर कांसे की एक थाली रखते हैं, फिर एक लोहे का चूड़ा लेते हैं. लोग बारी-बारी से भैरव गीत गाते हुए इसे बजाते जाते हैं. इसे बजाने का अंदाज भी अलग है, जिसे हर कोई नहीं बजा पाता है. इससे निकलने वाले शोर को ढांक संगीत कहते हैं. लोग इसमें शामिल होते जाते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हुए अर्जी लगाते हैं.

इसकी अनोखी मान्यता
विलुप्त हो रही यह परंपरा अब गिनी-चुनी जगह पर ही देखने-सुनने को मिलती है. सागर के चकरा घाट पर स्थित भैरव मंदिर में भैरव की आराधना करने के लिए ढांक बजाई जाती है. विश्व शांति के लिए ढांक बजाने का आयोजन किया जाता है. इस संगीत में भैरव बाबा की स्तुति बुंदेली अंदाज में की जाती है. मान्यता है कि जो श्रद्धालु बाबा भैरव के दरबार में अर्जी लगाता है, तो उसे ढांक संगीत में शामिल होना पड़ता है. तब उसकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है. इससे शत्रुओं से मुक्ति मिल जाती है.