मृत्यु एक शात सत्य है। यह अनुभूति प्रत्यक्ष प्रमाणित है, फिर भी इसके संबंध में कोई दर्शन नहीं है।  अब तक जितने ऋषि-महर्षि या संत-महंत हुए हैं, उन्होंने जीवन दर्शन की चर्चा की है। जीवन के बारे में ऐसी अनेक दृष्टियां उपलब्ध हैं जिनसे जीवन को सही रूप में समझा जा सकता है और जिया जा सकता है। किंतु मृत्युक को एक अवश्यंभावी घटना मात्र मानकर उपेक्षित कर दिया गया। मृत्यु के पीछ भी कोई दर्शन है, इस रहस्य को अधिक लोग पकड़ ही नहीं पाए। यही कारण है कि जीवन दर्शन की भांति मृत्यु दर्शन जीवन में उपयोगी नहीं बन सका।  
जैन दर्शन एक ऐसा दर्शन है जिसने जीवन को जितना महत्व दिया, उतना ही महत्व मृत्यु को दिया। बशत्रे कि वह कलात्मक हो। कलात्मक जीवन जीने वाला व्यक्ति जीवन की सब विसंगतियों के मध्य जीता हुआ भी उसका सार तत्व खींच लेता है। इसी प्रकार मृत्यु की कला समझने वाला व्यक्ति भी मृत्यु से भयभीत न होकर उसे चुनौती देता है। जैन दर्शन में इसका सर्वागीण विवेचन उपलब्ध है।  
मृत्यु का अर्थ है- आयुष्य प्राण चुक जाने पर जीव का स्थूल शरीर से वियोग।इसके कई प्रकार हैं। उन सबका संक्षिप्त वर्गीकरण किया जाए तो मृत्यु के दो प्रकार होते हैं- बाल मरण और पंडित मरण. असंयम और असमाधिमय मरण बाल मरण है। अकाल मृत्यु, आत्महत्या, अज्ञान मरण आदि सभी प्रकार के मरण बाल मरण में अंतर्निहित हैं। संयम और समाधिमय मृत्यु पंडित मरण है। जीवन के अंतिम क्षणों में भी संयम और समाधि का स्पर्श हो जाए तो वह मरण पंडित मरण की गणना में आ जाता है। कुछ व्यक्ति मौत के नाम से ही घबराते हैं।  
वे जीवन को महत्व देते हैं। अपना-अपना चिंतन है। मुझे इस संबंध में अपने विचार देने हों तो मैं मृत्यु को वरीयता दूंगा। क्योंकि जीवन की सार्थकता भी मृत्यु पर ही निर्भर करती है। किसी व्यक्ति ने तपस्या की है और जागरुकता के साथ धर्म की आराधना की है, तो उसका फल समाधिमय मृत्यु ही है।