अध्यात्म विद्या के विषय में अधिकांश भौतिक विद्वान शिक्षा को ही विद्या मान बैठते हैं। वे विद्या और शिक्षा के अंतर को भी समझने में असमर्थ हैं जबकि विद्या और शिक्षा में धरती और आसमान का अंतर है। इस विषय को स्पष्ट करते हुए महात्मा परमचेतनानंद ने अपने प्रवचन में कहा कि शिक्षा शब्द शिक्ष धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना। भौतिक शिक्षा अनुकरण के द्वारा सीखी जाती है जिसका संबंध ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेद्रिंयों व मन बुद्धि तक सीमित है। इसके अतिरिक्त विद्या शब्द विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना अर्थात् वास्तविक ज्ञान।   
यह ज्ञान स्वयं अंदर से प्रकट होता है, इसे ही अध्यात्म ज्ञान कहा जाता है। इसे आत्मा की गहराई में पहुंचने पर ही जाना जाता है। शिक्षा के विद्वान अहंकार से ग्रसित होते हैं, उनमें विनम्रता का अभाव होता है जबकि विद्या का प्रथम गुण विनम्रता है। विद्या वास्तव में मानव की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।   
इस अध्यात्म विद्या से मानव निष्काम कर्म योगी बनता है जो सभी को समान भाव से देखता है। पहले निष्काम कर्म योगी को ही प्रजा अपना राजा चुनती थी। वे अपने पुत्र तथा अन्य प्रजा के साथ समान रूप से न्याय करते थे। आज के असमय में अध्यात्म विद्या का अभाव होने के कारण राजा और प्रजा दोनों ही अशांत हैं फिर भी इसे ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है जबकि अध्यात्म विद्या के वेत्ता तत्वदर्शी संत आज भी मौजूद हैं।