बंगाल में धूम-धाम से मना दोल यात्रा. होली का त्योहार देश के अलग-अलग हिस्सों में मनाया जाता है. कुछ राज्योंमें होली को अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है. पश्चिम बंगाल में होली को दोल जात्रा या दोल पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है.

दोल जात्रा या दोल पूर्णिमा भगवान कृष्ण को समर्पित है. यहां होली को श्रीकृष्ण का दोल यात्रा कहते हैं. इसे बांग्ला कैलेंडर के मुताबिक, साल का अंतिम पर्व माना जाता है.

चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल में होली उत्सव को श्रीकृष्ण के दोल यात्रा के रूप में प्रचलित किया. उत्तर भारत में होली को सामाजिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है, लेकिन बंगाल में यह एक धार्मिक उत्सव है. इसलिए यह जानना बेहद जरूरी है कि दोल यात्रा का महत्व क्या है?

ऐसे में आपको बता दें कि चैतन्य महाप्रभु ने लोगों से कहा कि वे सबसे पहले मंदिर में जाकर भगवान श्रीकृष्ण को अबीर लगायें. इसके बाद आपस में एक-दूसरे को रंग-गुलाल लगायें. चैतन्य महाप्रभु ने यह भी कहा कि दोल यात्रा मनाने के बाद मिठाई-मालपुआ खाकर आनंदोत्सव मनायें.

तब से बंगाल में होली के त्योहार को दोल यात्रा के रूप में मनाया जाने लगा. हालांकि, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश या दिल्ली की तरह यहां भी लोग एक-दूसरे पर रंग डालते हैं. शाम के वक्त गुलाल खेलने की परंपरा भी है. लोग दिन में ढेर सारी मस्ती करते हैं.

पश्चिम बंगाल में रहने वाले लोग बताते हैं कि बंगाल में होली को डोल जात्रा, दोल यात्रा और बसंत उत्सव भी कहते हैं. होली यानी दोल की पूर्व संध्या पर बच्चे फूस और पतली लकड़ियों की मदद से एक पुतला बनाते हैं. इस पुतले को चांचुरी या नारा पोरानो कहते हैं. बुराई का प्रतीक मनकर घर के लोग इसे होली से एक दिन पहले जला देते हैं.

माना जाता है कि ऐसा करने से हर तरह की बुराई उनके घर और उनके परिवार के सदस्यों से दूर रहती है. उनकी सेहत बनी रहती है. सुबह में लोग रंगों की होली खेलते हैं, तो शाम को होली मिलन होता है. लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और उन्हें गुलाल लगाते हैं.

बंगाल में होली यानी दोल की एक और विशेषता यह है कि होली मिलन के लिए अपने परिचितों के यहां जाने से पहले महिलाएं लाल बॉर्डर वाली पीले रंग की साड़ी पहनती हैं. वह विशेष रूप से जूड़ा बनाती हैं, जिसके लिए केंडा माला का इस्तेमाल किया जाता है. यह एक तरह की मोतियों की माला है.