एक बार दो देवताओं में विवाद हो गया कि भाग्य बड़ा है या पुरूषार्थ? विवाद हर व्यक्ति के मन में पैदा होता है, चाहे मनुष्य हो, चाहे देवता हो। निश्चित हुआ, परीक्षा करें। एक देवता ने कहा- देखो! भाग्य बड़ा नहीं होता, पुरूषार्थ बड़ा होता है। दूसरे ने कहा- नहीं! उस आदमी को देखो। तुम्हें साक्षात् प्रमाणित करूंगा कि पुरूषार्थ बड़ा नहीं होता, भाग्य बड़ा होता है।  
पति-पत्नी जा रहे थे। देवता ने रास्ते के बीच रत्नों का ढेर लगा दिया। रत्न ही रत्न बिखेर दिए। जब आस-पास आए, पत्नी ने कहा- अभी तो हमारी आंखे अच्छी हैं, हम देख सकते हैं, हमें सब कुछ दिखाई देता है। कभी ऍसा भी हो सकता है कि बुढ़ापा आने के साथ-साथ हमारी आंखें चली जाएं, हम अन्धे हो जाएं। फिर काम कैसे चलेगा? पति ने कहा - परीक्षा कर लें। देखें, कैसे काम चलेगा? दोनों ने आंखों पर पट्टी बांध ली। दोनों चले। जहां रत्न बिखरे हुए पड़े थे, ढेर लगा था आस-पास में, उससे आगे निकल गए। कुछ आगे जाकर पति बोला- आंखो के बिना काम तो चल जाएगा, ऍसी कोई बात नहीं है। खोल लो पट्टी।  पट्टी खोल ली। देवता ने कहा - देखा तुमने! भाग्य में नहीं था, कुछ नहीं मिला। भाग्य बड़ा है पुरूषार्थ से। भाग्य और पुरूषार्थ की चर्चा को हम छोड़ दें किन्तु इस बात को हम नहीं छोड़ेंगे कि जब तक आंख पर मूच्र्छा की पट्टी बंधी हुई है, तब तक हमारे आस-पास में, हमारे सामने, दाएं-बाएं, चारों तरफ जो सम्पदा बिखरी पड़ी है, उसका हमें कुछ भी पता नहीं चलता। हम उस सम्पदा से अनजान रह जाते हैं।