फिर भी ज़िंदगी हसीन है…


दोस्तों, आप किसी भी बच्चे से उसके लक्ष्य के बारे में बात करके देख लीजिए आप निश्चित तौर पर सभी बच्चों का एक लक्ष्य एक समान ही पाएँगे, वे सभी ‘पैसे वाला’ अर्थात् अमीर बनना चाहते हैं और सामान्यतः यही उनका पहला और सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है। हालाँकि इस लक्ष्य का सपनों की सूची में होना कहीं से भी ग़लत नहीं है। लेकिन सिर्फ़ यही एकमात्र लक्ष्य होना कहीं ना कहीं ख़तरे की घंटी है क्यूँकि हर हाल में पैसे वाला बनने का लक्ष्य उन्हें पैसा सही तरीके से कमाने के स्थान पर किसी भी तरीके से कमाने की ओर प्रेरित कर सकता है और यह स्थिति किसी भी हाल में समाज के लिए ठीक नहीं है। 

हालाँकि इस विषय पर मैंने पहले भी आपसे चर्चा करी है, लेकिन पिछले 15 दिनों में अलग-अलग शहर और विद्यालय के बच्चों के साथ हुई बातचीत ने मुझे एक बार फिर से इस समस्या पर विचार करने और चर्चा करने के लिए बाध्य किया। लेकिन इस बार भी काफ़ी सोचने के बाद, मैं इसी नतीजे पर पहुँचा कि कहीं से भी हम इस समस्या के लिए बच्चों को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते क्यूँकि उन्हें संस्कारवान और सही लक्ष्य चुनने लायक़ बनाने की ज़िम्मेदारी हमारी अर्थात् समाज में बड़े लोगों की थी और अगर बच्चों में इसकी कमी नज़र आ रही है तो निश्चित तौर पर हमें अपने तरीक़ों को बदलना अथवा सुधारना पड़ेगा। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ कि हमें अपने पेरेंटिंग और शिक्षा देने के तरीके में बदलाव लाना होगा क्यूँकि इन दोनों की मदद से ही हम बच्चों को भविष्य के लिए तैयार करते हैं। 

आईए, आज हम महात्मा गाँधी के अग्रणी शिष्यों में से एक आचार्य श्री विनोबा भावे जी के एक वक्तव्य से इस समस्या के हल को तलाशने का प्रयास करते हैं। आचार्य विनोबा भावे की माँ धार्मिक महिला थी, उन्होंने विनोबा भावे को बचपन में ही भगवद्गीता जैसे धर्म ग्रंथ को सार सहित समझा दिया था। इसी वजह से विनोबा भावे जी विभिन्न धर्मों, मत-मतांतरों के बारे में बहुत अच्छा ज्ञान रखते थे। इसके साथ ही आचार्य विनोबा भावे जी को बहुत सारी भाषाओं का भी ज्ञान था।

आचार्य विनोबा भावे जी ने आज़ादी की लड़ाई में अहिंसक मार्ग का समर्थन करते हुए बड़ा योगदान दिया और देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य ‘राष्ट्र निर्माण’ बना लिया। भूदान आंदोलन, ब्रह्मा विद्या मंदिर, कई किताबों, वक्तव्यों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपना अलौकिक योगदान दिया। विनोबा भावे जी संस्कारों और संस्कृति को इंसान की सबसे बड़ी धरोहर मानते थे, वे एक तरह से सोशल रिफ़ॉर्मर थे।

एक बार महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें आमंत्रित किया गया। औपचारिक बातचीत के दौरान आचार्य ने वहाँ के प्राचार्य से प्रश्न किया, ‘आप विश्वविद्यालय में किस-किस विषय को बच्चों को पढ़ाते हैं?’ प्राचार्य ने बड़े गर्व से जवाब देते हुए बताया, ‘विश्वविद्यालय में विभिन्न भाषाओं के साथ, गणित, विज्ञान, आर्ट्स, अर्थशास्त्र आदि विषय पढ़ाने की व्यवस्था है।’ आचार्य ने तुरंत प्राचार्य से अगला प्रश्न किया, ‘क्या आपने इन विषयों के साथ नैतिक शिक्षा देने की भी व्यवस्था की है?’ प्राचार्य ने ना में सर हिलाते हुए कहा, ‘जी नहीं, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।’

आचार्य विनोबा भावे जी ने एकदम गम्भीर होते हुए प्राचार्य से अगला प्रश्न किया, ‘क्या छात्रों को केवल धनार्जन योग्य बनाना ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य है? क्या आपको नहीं लगता कि हमें उन्हें एक अच्छा इंसान और सच्चा भारतीय बनाना होगा? अगर हमने छात्रों को अच्छे संस्कार और जीवन मूल्य नहीं सिखाए तो युवा पीढ़ी अपनी प्रतिभा व शक्ति का प्रयोग राष्ट्र और समाज के हित में करेगी, इसकी क्या गारंटी है?’ कुछ पल रुकने के बाद आचार्य ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘मेरे विचार से शिक्षा का पहला और सबसे अहम लक्ष्य बच्चों को आदर्श इंसान बनाने का होना चाहिए। इसके लिए हमें उन्हें संस्कार और संस्कृति का  पाठ पढ़ाना होगा अन्यथा संस्कार विहीन युवा ‘धन पिशाच’ बन समाज को ग़लत दिशा में ले जाने का कारण बनेगा।’

दोस्तों, आज शायद हम यही भूल बच्चों के लालन-पालन और शिक्षा के दौरान कर रहे हैं। आईए दोस्तों, आज से हम मिलकर निर्णय लेते हैं कि हम बच्चों को विषय और व्यवहारिक ज्ञान के साथ-साथ संस्कृति और संस्कार का धनी भी बनाएँगे। याद रखिएगा शिक्षा और जीवन मूल्य अर्थात् विषय, संस्कृति और संस्कार का मिश्रित ज्ञान ही उन्हें पूर्णतः शिक्षित बना, एक अच्छा इंसान बना सकता है।

इसीलिए मार्टिन लूथर किंग ने भी कहा है, ‘शिक्षा का कार्य गहराई से और गंभीर रूप से सोचना सिखाना है। जिससे चरित्र के साथ बुद्धिमत्ता का भी विकास हो सके, यही सच्ची शिक्षा का लक्ष्य है।’

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर   
dreamsachieverspune@gmail.com